पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२६

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इन व्यक्तिगत निबन्धों से परिचित हो जाने पर हमें यह कहने में संकोच न होना चाहिये, कि जिस प्रकार अंगरेजी साहित्य में मौन्टेन निबन्ध, लेखन कला का जन्मदाता माना जाता है, उसी प्रकार प्रेमघन जी भी हिन्दी के मौन्टेन कहे जा सकते हैं।

प्रेमघन जी के व्यक्तिगत निबन्ध उनके वैयक्तिक प्रयास हैं, जिसमें व्यक्तिगत विचार जिस क्रमवद्धता से जीवन के अन्तर जगत के मार्मिक विचारस्थलों को स्पष्ट करते हैं, उसी प्रकार जीवन के सच्चे स्वरूप को भी। व्यक्तिगत निबन्धों में आप का विषय तो निश्चित ही रहता है, पर उनके विचार किसी परिधि के भीतर आवेष्ठित नहीं रहते, जो प्रासङ्गिक विषय इन प्रसंगों के अन्तरगत आते हैं, उनका यहाँ वर्णन पूर्णरूपेण होता है। इन निबन्धों में शृंखलाबद्ध विचार है। पण्डित वर श्री विज्ञान शेखर शास्त्री, विद्या वाचस्पति के धर्म भीरुता का चित्र "गुत गोष्ठी" में बड़ी पटुता से चित्रित है। तत्कालीन समय में भारतेन्दु का व्यक्तित्व एक महान और अनुकरणीय था। प्रेमघन जी ने जिस प्रकार "शोकाश्रु विदु" में भारतेन्दु की महानता और अपना उनसे व्यक्तिगत साख्य-भाव के प्रदर्शन का अमिट चित्र ("मित्र क्यों न रोवै तेरो शत्रु क्यों न होवै तऊ पूरो पशु हो ना तो क्या मजाल रोवै ना") लिख कर चित्रित किया है, उसी प्रकार गद्य में भी भारतेन्दु' अवसान पर अपने हृदय के उद्गारों को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया है।

गद्य, काव्य, मीमांसको ने गद्य के चार खण्ड किये हैं, वे हैं शब्द, वाक्य, पैराग्राफ, तथा अलंकार।

प्रेमघन जी का शब्द चयन बड़ा मधुर तथा उपयुक्त होता था। वे हर एक शब्द को बहुत सोच समझ कर प्रयोग में लाते थे, और शायद यही उनके पत्र-पत्रिकाओं के ठीक समय पर न प्रकाशित होने का मुख्य कारण था। आप जब प्रूफ देखते थे तो कभी कभी उचित शब्दों के प्रयुक्त न होने के कारण पूरा भ्रूफ ही उलट देते थे। क्योंकि उन्हें तो शब्द' मैत्री का, अनुप्रास का, तथा भाषा में जिन्दादिली का, होना आवश्यक समझ पड़ता था।

क्योंकि उन्हें तो नियम निर्घोष सनाया "तड़ित समाचार में सार की खबरें आई "विज्ञापन की वीर बहूटियाँ नीरद ने दिखलाई" और "संग्रह सुरेन्द्रा युध" में अनुभूत और उपयोगी औषधियाँ बताई ऐसी भाषा प्रिय थी।

वाक्यों के प्रसंग में हमें यह कहना पड़ता है कि उनके वाक्य बड़े लम्बे और सारगर्भित होते थे। आचार्य रामचन्द्र के शुक्ल के शब्दों में प्रेमघन