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प्रेमघन सर्वस्व

अपना पूजनीय मानकर उसकी वीर पूजा कराया चाहता है। अस्तु, हमको उसकी पूजा तो इष्ट नहीं है, क्योंकि आर्यों को पूजनीयों की न्यूनता नहीं है। मुसल्मान भी उसे न पूजेंगे, क्योंकि उसमें मुसल्मानों की स्वाभात्रिक धर्मान्धता, कट्टरपन और आग्रह न था, तब उस यवनकुल मुकुटमणि सौम्य अकबर की जिसकी जीते ही जी पूजा हो चली थी, पूजक सम्प्रदाय भी तो इस समय कोई अवश्य चाहिये। फिर सिवा ऐसे लोगों के जिन्हें कुछ विशेष विचार वा विवेचना बाधा नहीं करती, जो विजातियों और सजातियों में भेद नहीं मानते; और दोनों को सब अवस्थानों में सर्वथा समान जानते, पवित्र वेद और कुरान, बाइबिल को एक आँख से देखते, उनके लिये भी तो किसी एक ऐसे वीर की परम आवश्यकता है कि जिसकी वे लोग पूजा करें। सुतराम् उन्हें अकबर से बढ़ कर दूसरा पूज्य कौन मिल सकता है? इसी भाँति हम लोगों को भी कोई वीरवर प्रतापसिंह से बढ़कर इधर आदरणीय नहीं दिखाई पड़ता, अतः बिना विलम्ब के हम लोगों को भी उक्त महाराणा का वार्षिकोत्सव करके अपने एक आधुनिक जातीय गौरव के हेतु इस दुर्लभ वीर की प्रतिष्ठा और पूजा कर जातीय जीवन को उन्नत और उत्साहित करना चाहिये; और किसी प्रकार इसमें कदापि कुछ भी विलम्ब नहीं करना चाहिये।

सारांश यह कि साम्प्रतिक हिन्दी पत्रों के प्रस्ताव जैसे फल शून्य हो उनके अकेले एक ही अङ्क में समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार इसमें न होना चाहिये। बरञ्च देश के अग्रगण्यों को इसका प्रयन अभी से कर चलना उचित है, और पत्र संम्पादकों को इसपर बारम्बार आग्रह करते उन्हें स्मरण दिलाते ही जाना चाहिये, क्योंकि इस नवीन प्रथा के प्रचार के अतिरिक्त हमारे देश और जाति पर जो महाराणावंश का भारी ऋण है उसके अकृतशता के ब्याज को अधिक बढ़ना न चाहिये, क्योंकि आर्य-जाति का अवशिष्ट साम्राज्यपद का भाव जो है सो अब इसी वंश में विद्यमान है जो हमारे अतुल अभिमान का हेतु है। ईश्वर उसे सदैव निर्विघ्न रक्खे और उसे नित्य नवीन उन्नति प्रदान करता रहे।

१९६१ वै॰ आ॰ का॰