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प्रेमघन सर्वस्व

है। स्वदेशी की जन्मभूमि ही पर यह प्रदर्शनी अबकी बार बड़े धूम से हो रही है। इसी से इस अवसर पर देशी वस्तुओं के दिखावट में किसी प्रकार को त्रुटि न होगी। कलकत्ते के विशेष माड़वारियों और विहार के सभ्य विहारियों को छोड़ और देश-मात्र की आँखें इन दर्शनोचित पदार्थों के दर्शन से प्रफुलित हो जायगी। केवल कुछ विदेशियों ही की आंखों से अश्रु धारायें चलेंगी, क्योंकि वे अपने नाश की सूचना इस प्रदर्शनी में देखेंगे। जिनके कानों को (वन्देमात्रम्) शब्द कराल कुठार था, वह सब इस देश के कौशल के अपार भण्डार और व्यवसाय की चमत्कार विभूति को कैसे देख सकेंगे। हा! नरकनिवासिनी तृष्णा! तेरी माहिमा कैसे कही जाय! सुनते थे कि दावानल से जलती भूमि पर बन्दर अपने बच्चों को नीचे धरकर बैठ जाते हैं और अपने को बचा लेने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु तेरी लीला प्रत्यक्ष देखने में तो अभी भाई है। भला क्या सचमुच वे स्वदेशी के कारण जले जा रहे हैं? नहीं, यह तो कोई ऐसी बात नहीं थी, यदि लोभ और स्वार्थान्धता उन्हें विचार का कुछ अवकाश और शक्ति देती, तो वे अनायास सहज ही में इसे तुरन्त समझ लेते कि ये लाम के रूप में गरल पान के लोलुप हो रहे हैं। स्वदेशी की रुकावट उन की शक्ति से परे है। इसमें हमारा कल्याण है, जीविका है, स्थिति है। सर्वग्रासी दुर्भिक्ष से बचने का यही एक उपाय है। मोह-निद्रा और आलस्य में सोते भारत के जगाने की यही एक तीखी, गुणकारी और नीतिसिद्ध अद्वितीय सुंपनी वा नस्य है। अतएव आशा है कि भारत के सच्चे हितैषी व्यापारी कभी इस सुअवसर को हाथ से जाने न देंगे और यथाशक्ति वे इस प्रदर्शनी में अपने प्रान्त की बनी वस्तुओं को भेजते हुए उसके सुसम्पन्न करने में कुछ कसर न रक्खेंगे।

कभी सोता, कभी जगता, कभी करवटें बदलता, लड़खड़ाता, हमारा प्यारा श्री भारतधर्ममहामण्डल भी अबकी बार कलकत्ते में उसी समय पर अपना रंगीन और आग्रही चश्मा लगाये पहुँचता है। हर्ष का विषय है कि हमारे लिखने पर ध्यान दे मण्डल ने इस बार तो वहाँ अधिवेशन करना स्वीकार किया है। किन्तु हमारी इच्छा है कि यह सदैव के लिये स्थिर हो जाय कि कांग्रेस के साथ ही वरञ्च उसी के मण्डप में इसके भी अधिवेशन हुआ करें, जैसी प्रार्थना कि हम पहिले ही कर चुके हैं। इसी प्रकार और भी कई समाये वहाँ होंगी, जिससे अबकी बार कलकत्ता अपनी अनुपम शोभा को धारण करेगा। भारत के परम हितैषी और उसके सुविख्यात सुपुत्र