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प्रेमघन सर्वस्व

भारतीयता का अवशेष नही दिखाता! शिक्षा-दीक्षा विदेशी, विद्या-बुद्धि विदेशी, मति-गति विदेशी, रीति-नीति और प्रीति विदेशी, चाल-ढ़ाल और माल-ताल भी विदेशी, खान-पान विदेशी, व्यायाम, विश्राम और नाम तथा काम सब विदेशी ही विदेशी की भरमार है। जिधर दृष्टि दीजिये सर्वत्र बस विदेशीय ही सामग्री का प्रचार है, जिसकी गिनती हम कहाँ तक गिनाये और यदि गिनाये तो कैसे पार पाये। इस देश में अब ऐसा कोई कदाचित ही स्थान होगा कि जहाँ विदेशी का विस्तार न हो; इसी से आज भारत में प्रायः सबी स्वदेशी वस्तुओं का मिलना कठिन हो रहा है, जो कुछ पदार्थ कहीं कही दिखाई भी पड़ते हैं वह प्रातःकालीन दीपशिखा से स्वल्पायु हो रहे हैं। फिर इससे अधिक परिताप का और कौन विषय हो सकता है!

आप यदि हमारे घर आइये और हमारे दीवानखाने वा ड्राइङ्ग रूम और कमरों को मुलाहिजा फरमाइये तो देखिए, कैसी कैसी चमत्कृत चीजों से बाजे आरास्ता और पैगस्ता है। ऐसी ऐसी अजीब और गरीब पड़ियाँ, बाजे और खिलौने, यन्त्र और दिल बहलाव की सामग्रियां पाइयेगा कि वाह वाह करते रह जाइयेगा। परन्तु यदि यह जानना चाहिये कि यह सामग्रियाँ कहाँ की बनी हैं, तो वही अमेरिका, जर्मनी, फ्रान्स, इटली और इङ्गलैण्ड को छोड़ चीन, जापान, ईरान अथवा अफगानिस्तान का नाम कदाचित ही सुनने में आये और यह तो अत्यन्त असम्भव है कि उसमें कोई भारत की वस्तु-भी दिखाई पड़ जाय। क्योंकि चाहे कोई भारतीय वस्तु ऐसी भी हो कि जो वहाँ स्थान पाने की योग्यता रखती हो, किन्तु जब कि हमारे हृदय में उसको स्थान नहीं है, तो इसमें कैसे मिल सकती है। अवश्य ही यद्यपि जयपुर में अति सुन्दर सुहावने और मन लुभाने वाले चित्र बनते और मिलते है, परन्तु हमें तो केवल विलायती ही भाते। सहारनपुर, बरेली, मुरादाबाद गोरखपुर आदि; स्थानों में लकड़ी के बने अनेक उत्तम पदार्थ लभ्य होते, परन्तु हमें बिलायती ही अँचले। आगरा, गया आदि में पत्थर; लखनऊ, चुनार और निज़ामाबाद आदि में मिट्टी, ढाका, टाँडा, काशी, आदि में सूत और रेशम काश्मीर और अमृतसर आदि में ऊनी वस्त्र बढ़िया और बहुमूल्य लभ्य होते; दिल्ली और काशी आदि में तारकशी, गोटे पट्टे और बेलबूटे तथा रुई की कारीगरी अद्यावधि बहुत कुछ होती, किन्तु उनको कौन पूछता है? मुरादाबाद, सलेमपटी, अयोध्या, कर्नाल आदि के बर्तन, फर्रुखाबाद और लखनऊ की छींट और छरे कपड़े, ग्वालियर और जयपुर में रंग के काम बहुत अच्छे