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प्रेमघन सर्वस्व

है। तथापि न्यूनातिन्यून इतना विचार तो रखना अवश्य ही उचित है कि स्वदेशी पदार्थ देश में लभ्य होते हैं कदापि विदेशी न लिये जायें। स्वदेशी पदार्थ चाहे विदेशी से किञ्चित् भद्दा और घटिया मूल्य में मँहगा क्यो न मिलता हो, तथापि अचल आग्रह रखना उचित है। इसमें सन्देह नहीं कि किसी के आते सुन्दर और सुविज्ञ बालक को देख कर प्रसन्न होना और अपने बालकों को तदुरुप विद्या और गुण से सम्पन्न करना परम उचित हैं, किन्तु अपने कुरूपं और मन्द बुद्धि बालक के स्थान और स्वत्व को उक्त दूसरे के बालक को दे देना कभी कुछ विचित्र मूर्खता और जघन्यता है! समझना सहज है। सच है,—"खारे वतन अज़ सुम्बुलोरैं हाँ खुशतर।"

हम अति कष्ट से भूमि जोतते, अन्न बोते, सींचते, काटते और दाल ओसा और स्वच्छ कर राशि मात्र लगाते, परन्तु उसको खाते हैं दूसरे द्वीप के लोग। हम उसे बेचकर क्या पाते हैं? सीप के बटन वा सींध की कंघी, काग़ज के चित्र और मिट्टी के खिलौने। हम सौ सौ दुःख झेलकर कपास बोते परन्तु रूई निकाल विदेश भेज देते और उसके बदले में विदेशीय बने कपड़े मोल लेते। उसके सीने को सूई वा यन्त्र तथा बटे सूत भी वहीं से लेकर सीते, वहीं के सिद्ध रंग से उसे रंगते और वहीं के बने बटन लगाकर पहिनते; उसे तथा मुँह धोने के लिये साबुन भी वहीं से लेते; लिखने के कागज़, कलम और रोशनाई वहीं से मंगाई जाती, पढ़ने की किताबें भी वहीं से आती। यदि यहाँ भी छपती, तो सब सामान वहीं से आता यदि लोटे, थाली और लोहे की सन्दक, हम यहाँ बनाते, तो तांबे, पीतल और लोहे की चहरे वहीं की लेकर! कहाँ तक गिनायें बहुतेरा कोरा माल प्रायः यहाँ से एक रुपये मूल्य पर वहाँ जाता, तो घूम कर पचीस-पचास का होकर यहाँ आता! हम जिसे एक रुपये पर बेचते तो फिर उसी को पचास रुपये पर मोल लेते है? चार रुपये का बैल का चमड़ा यहाँ से जाता, तो वहाँ से पचास रुपये के जूते और सैकड़ों के बेग बन कर आते। यहाँ से दस रुपये की रुई जाती तो पांच सौ की अघी बन कर आती। सारांश हमारे सुख की सबी सामग्री विदेशी ही सिद्ध और सुसम्पन्न करते और हम लोग श्रानन्द से हाथ पर हाथ धरे बैठे ऊँघते। कहिये, कैसा आनन्द है? हम आलसियों के सदृश भगवान् किसी की भी दुर्गति न करें, जिस देश की ऐसी दशा हो उसकी स्थिति कैसी कुछ भयङ्कर होगी, सहज ही समझ में आ सकती है। पर हमने इस पर आज तक कभी ध्यान भी न दिया, जब तक खाने को मिला जाता था,