पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२७

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जी के वाक्यों की व्याख्या बड़ी पटुता से हुई है "और कभी-कभी ऐसे पेंचोले मज़बूत बाँधते थे कि पाठक एक एक डेढ़ वेद कालम के लम्बे वाक्य में रह जाता था,—फिर भी उनका पद विन्यास व्यर्थ के आडम्बर के रूप में नहीं होता था।

आपके वाक्यों में अलंकारों की छटा और विचारों का गाम्भीर्य है। वाक्यों के अन्तर्गत शृंखलाबद्धता के कारण लम्बे लम्बे एक एक कालम तक के उनके होने में भी शैथिल्य नहीं दिखाई पड़ता, आपके वाक्य खंडों में यह जानने की उत्कंठा सदा रहती है कि उसके अन्त में क्या व्यक्त करना चाहते हैं "जैसे चाहे हम रोवैं, चाहे गावै, चाहे उपवास करें, चाहे डूब मरें, किन्तु बिना ऐक्य के स्वराज्य नहीं प्राप्त होगा।"

प्रेमघन जी के वाक्य समूह या पैराग्राफ बहुत बड़े-बड़े होते हैं, जिनक तात्पर्य बिचार गांभीर्य से तो है ही, वरञ्च यह उनके शैली की विशेषता है। कि उन्हें किसी बात को सीधे ढंग से कहना कचिकर प्रतीत नहीं होता है वे सदा पेचीले मज़मून बांधते थे क्योंकि उन्हें कलम की कारीगरी दिखाना रहता था।

प्रेमघन जी के गद्य शैली की समीक्षा करते समय हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि वे खड़ी बोली गद्य के प्रथम आचार्य थे। उनके समक्ष उस समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, श्रादि व्यक्तियों का समुदाय था, पर उनकी प्रतिभा इन लोगों के प्रभाव से प्रभावित नहीं हुई, घरञ्च उनकी अपनी विलक्षण शैली इन लोगों से पृथक्, ही रही। प्रेमघन जी ने गद्य लेखन को भी एक कला के रूप में ग्रहण किया क्योंकि उनके अनूठे पद विन्यासों, कोमलकान्त पदावलियों, ने जस परिष्कृत तथा परमार्जित भाषा का रूप हमें दिया है वह उनकी निजी देन है। उनके पद विन्यास व्यर्थ के आडम्बरों से युक्त नहीं हैं, इनमें अर्थ गाम्भीर्य तथा सूक्ष्म विचार बड़ी पटुता से व्यक्त हैं। जिस कलात्मकता से उनके निबन्ध एक सूत्र में सजीवता और रोचकता के धागे से बंधे हैं, कि कहीं एक शब्द भी इधर उधर किया जाय तो उनकी क्रम बद्धता ही नष्ट हो जाती है। व्यक्तिगत निबन्धों के अन्तर्गत जितनी सजीवता है उतनी ही मधुरता भी है, सामाजिक निबन्धों में व्यङ्ग के हल्के हल्के छीटे हैं। भाव अभिव्यंजना तो सब जगह बड़ी पटुता से प्रदर्शित की गई है।