पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२७१

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भारतीय प्रजा में दो दल


यद्यपि द्वन्द्व के योग से जगत् की सृष्टि और स्वयम् जगत् ही द्वन्द्वमय है अतः संसार में कहीं इसका प्रभाव नहीं है, तो भी भारत के समान और कहीं इसकी अधिकता नहीं है। क्योंकि हम वेद और शास्त्रों में सृष्टि के प्रारम्भ ही से देवता और दैत्यों के साथ ही उत्पत्ति का प्रमाण पाते और देवासुर संग्राम की कथा सुनते हैं। पीछे से आर्यों और राक्षस, दस्यु आदि तथा सभ्य और असभ्यों से भी युद्ध होता रहा,इसी भाँति वैदिको और बौद्धों के परस्पर कलह का वृत्तान्त भी किसी से छिपा नहीं है। पश्चात जब से यहां विदेशियों का आगमन हुआ, कुछ इसकी पुष्टि और अधिक हो गई। इसी से यहाँ की प्रतिद्वन्दिता के दो भाग किये जा सकते हैं, अर्थात् एक स्वदेशी और दूसरी विदेशी। प्रतिद्वन्द्विता अधिकांश केवल धर्म और आचार विरोध के कारण उत्पन्न होती थी, जो एक के प्रबल होने पर दूसरे दल को अपने वल से परास्त कर स्वराज्य स्थापन कर कुछ दिन के अर्थ शान्त हो दब जाती रही, क्योंकि देवासुर संग्राम से लेकर वैदिक और बौद्धों के परस्पर युद्ध, अथवा विक्रमादित्य वा भगवान् शङ्कराचार्य के समय तक यही रीति रही कि जब जिस दल में कोई प्रतापी उत्पन्न हुआ दूसरे को ध्वस्त कर अपना अधिकार स्थापित कर अपने धर्म और चार विचार का विस्तार बढ़ा चलता फिर जहाँ कुछ दिन निर्द्वन्द्व आभाव से सुख और शान्ति का भोग कर व्यसनशीलता में पड़ प्रमाद और अन्याय की अधिकता करता, दूसरे दल को उसके निर्मूल करने का उत्साह होने लगता; क्रमशः उसकी पुष्टि हो चलती और वही दूसरे के विजय का कारण होती। हसी से कभी देवता जीते तो कभी दैत्य, कभी आर्य तो कभी राक्षस, अथवा कभी वैदिक दो कभी बौद्ध; तौभी यह सब प्रतिद्वन्दिता स्वदेशी ही थी।

किन्तु विदेशियों का आक्रमण तो यहाँ केवल धन-लोभ और राज्य-लालसा ही के कारण होता रहा। यद्यपि भिन्न धर्मियों के आने में प्रायः धर्म द्वष के कारण भी रक्तपात हा, और कभी २ कदाचित् लोग जो उनके धर्म को स्वीकार कर लेते, तो जब यहां फिर कोई प्रतापी उत्पन्न होता, उस धर्मा

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