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प्रेमघन सर्वस्व

अन्धकार को दूर कर देता। स्वदेशी जेता से जो विदेशी पलायित होते और जो कहीं न जाकर यहीं रहते, वे अपने आचार विचार और धर्म विश्वास को छोड़ जेता के अनुगामी हो जाते थे। योंही स्वदेशी विरुद्ध दल को भी परास्त कर विजयी दल अपने आंशिक धर्म और आचार विचार को अकस्मात् स्वीकार करा उनके पूर्व धार्मिक और प्राचार विचार के स्वरूप को ऐसा परिवर्तित कर देता कि थोड़े दिन पीछे उनमें कुछ भी विभिन्नता शेष न रहती। अतः यद्यपि देश विजय के साथ ही साथ धर्म का अधिकार भी स्वयमेव प्रबल और शिथिल होता रहा तो भी आव्यों के प्रतापादित्य के प्रखर प्रकाश के समय न केवल भारत समीपस्थ देश मात्र, वरञ्च दूर दूर के द्वीपों में भी प्रायः भारतीय धर्म ही का अधिकार अटल रहने से प्रथम विदेशियों के आने पर भी प्रायः धर्म में विशेष उलटफेर नहीं होता था।

किन्तु पश्चिमीय देशों में खुष्टीय धर्म के प्रचरित होने के पश्चात् मुहम्मदाय मत की सृष्टि के साथ ही साथ उसके प्रचार के व्याज, धन लोभ और राज्य विस्तार लालसा के वश उसके अनुयायियों के आक्रमण जो चारों ओर होने लगे, संसार में एक विचित्र उलटफेर के कारण हुए। क्योंकि यह लोग जिस दशा में जय-लाभ करते, निज धर्म को भी साथ ही बलात् स्थापन कर चलते किन्तु जब जहीं राज्य च्युत होते अपने धर्म को प्रायः निर्मूल होते देखते रहे क्योंकि फिर देश विजयी स्वदेशी राज-मान्य धर्म प्रचरितं हो जाता। किन्तु दुर्भाग्यवश भारत में यह दशा न हो सकी। यद्यपि यहाँ का धर्म स्वाभाविक सत्य और ठोस था, उसके अनुयायी प्राणपण पूर्वक उसको स्थित रखने के अति आग्रही थे, सुतराम वह उस सार शून्य धर्म को नितांत परवश होने पर भी स्वीकार करने में सम्मत न होते, तौभी बहुतेरे बलात् आचार भ्रष्ट होने से निज प्राचीन सत्य धर्म से च्युत हो इस नवीन विरुद्ध धर्म के अनुयायी होकर कुछ दिनों में उसी दल में परगणित से कट्टर मुहम्मदी हो गये। शोक है कि इधर कोई स्वदेशी प्रतापी राजा और धर्माचार्य के न होने से इसका कुछ प्रतीकार भी न हो सका। फिर आर्यों में आचार भ्रष्ट को कदापि अपने समाज में सम्मिलित करने और उनसे नितान्त घृणा का व्यवहार रखने में उनकी संख्या दिन दूनी और रात चौः नी वृद्धि करती रही जिससे आज इस देश में पञ्चमांश संख्या केवल मुहम्मादियों की होगई है। यदि मुगलो के राज्य के समाति पश्चात् यहाँ आर्यवंशीय साम्राज्य सुदृढ़ रूपसे कुछ दिनों स्थापित रह गया होता चौर साथही कोई