के वैज्ञानिक वीर हार रहे हैं यह काठ की कृपाण धारी बाल सेना उनकी चोट सहकर कब खड़ी रह सकती है।
यह उद्योग हमें केवल उपकार बुद्धि से, केवल भूलों को ठीक राह पर लाने के अभिप्राय से करना चाहिये, कदापि द्वेष बुद्धि से नहीं। क्योंकि हमारा धर्म किसी से द्वेष करने की आज्ञा नहीं देता। हाँ जो हमसे द्वेष करते हैं उनसे उस द्वेष को दूर करना हमारा कर्तव्य अवश्य है। एक द्वेष में व्यर्थश को हटाने का उपाय भी अवश्य ही करना चाहिये। यदि यह द्वेष उस जाति का मूल धन है अतएव इसका दूर होना तबी सम्भव है, कि जब उनके चित्त में पूर्ण रीत्या यह विश्वास हो जाय कि ईश्वर की उपासना और भक्तिही केवल कल्याण का हेतु है दया, दम, दान, क्षमा सत्य आदि ही धर्म के मुख्य अंग हैं। दंभ, द्वेष और हिंसा आदि उत्कट अधर्म हैं एवम् मनुष्य के आदेश तभी माननीय है, कि जब उसे अपनी अन्तरात्मा निर्विवाद रूप से स्वीकार करे। केवल दिप्ती के इस कह देने से कि "यह हुक्में खुदा है" नहीं मान लेना चाहिये।
अस्तु, सम्प्रति कितने ही मुसलमान हिन्दू देवी देवताओं को भी पूजते हैं कितने ही उनमें मुसलमानी असन्व्यवहार से घृणा करते हुए अनेक हमारी रीतियों का पालन करते हैं। फिर क्या उनसे अन्य विरुद्धाचारी मुसलमानों ही सा हमें व्यवहर रखना चाहिये। नहीं, जब एक विधर्मी बड़ी भारी सम्प्रदाय हमारे देश में या बसी, या बनी है, तब हमें उनके साथ कुछ मातृभाव और मेल बढ़ाना ही चाहिये, उनमे जितने विशेष शुद्ध आचार व्यहार में है हमें उन्हें उतना ही अधिक आदर देना चाहिये।
आगे सब प्रकार के विवादों का निबटेरा केवल कृपाण के द्वारा हो जाता था, जो जिससे प्रबल होता, वह उसे परास्त कर मनमाना कृत्य करा लेता था। किन्तु अब समय दूमरा उपस्थित हुआ है, हिन्दू और मुसलमान एक तीसरे भिन्न-धर्मी राजा की प्रजा हैं। देश की समस्त प्रजा की पुकार ही में देश का दृष्ट साधन होता है। परन्तु अब एक राजा की एक जातीय प्रजा के स्थान पर दो जाति की प्रजा होने से दोनों के परस्पर विवाद और विदोष के कारण प्रजा की शक्ति अत्यन्त निर्बल है। इसी से देश के सुशिक्षिन शुभचिन्तक अग्रगरायों को अब दोनों में विशेष एकता उत्पन्न करने के बिना देश की हीन दशा दूर होने की आशा नहीं है। सुतराम् अब लोग इसके लिये विशेष चेष्टित होते दिखाते हैं।