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प्रेमघन सर्वस्व


निःसन्देह अंगरेज़ी राज्य के आरम्भ होने के आगे और बहुत दिन पीछे पर्यन्त भी परस्पर हिंदू और मुसलमान प्रजाओं में बन्धुभाव स्थापित था। राजा का जाति होने पर भी मुसलमान यह समझते थे कि अब यही हमारा देश है, यहाँ के सभी निवासी हमारे भाई हैं। इन्हीं से मिल कर रहने में हमें सब प्रकार का सुख और सहायता मिल सकती है, एवम् विरोध से विरुद्ध फल मिलेगा और केवल धार्मिक विभेद के अतिरिक्त और किसी प्रकार की हम लोगों में भिन्नता भी नहीं है। हाँ, अनेक मुसलमानी बादशाह नवाब और सूबेदार वा उनके राजकर्मचारी जो केवल मिथ्या धार्मिक विश्वासान्ध होते अवश्य मुसलमान प्रजाओं का विशेष पक्ष करते और हिन्दुओं को दबाते थे। किन्तु वह केवल राजशक्ति ही के सहारे जैसा कि आज दिन भी सदैव यरोपियनों के साथ भारतीयों को राजद्वार से नीचा देखना पड़ता है। किन्त धटिश राज्य स्थापित होने पर मुसलमानों को फिर कोई कारण ऐसा शेषन रहा कि जो धार्मिक उत्सवों को छोड़ हिन्दुओं से विवाद का हेतु हो। इसी दोनों में इतना स्नेह बढ़ गया, कि जैसा ठीक परस्पर अपने समान धर्मियों से था। नित्य नैमित्तिक व्यवहार में वे दोनों दूध और चीनी से मिल चले थे। मुसलमान हिन्दुओं से मिलकर होली खेलने और परस्पर गाली देने, और सुनने, हिन्दू मुहर्रम में रोने और छाती पीटने लगे। मुसलमानों के यहाँ होली और हिन्दुओं के घर मुहर्रम की मजलिसें होने लगी वे उनके घर यदि ईद मिलने जाने लगे, तो ये होली और दशमी में उनसे गले मिलने आने लगे। दंनो धर्म वाले अपने भिन्न धर्मी, मित्रों की बहु बेटियों के साथ निज की बहू बेटियों के समान बुद्धि और व्यवहार रखने लगे। परस्पर विधी भाई, भतीजे, भाभी, दादी और चाची भी बन गई, उनमें ऐसा शुद्ध प्रेम बढ़ा कि केवल श्मश्रु और शिखा के अतिरिक्त और कोई भेद न रहा, दोनों दल के लोग परस्पर एक दूसरे की शादी और रामी में सगे भाई से सम्मिलित होने लगे। अब बुद्धिमान जन स्वयम् अनुमान कर सकते हैं कि ऐसे मेल के संग रहनेवाली भिन्न जातीय प्रजा के रहने से भी देश को क्या हानि हो सकती है? क्योंकि इनका होना भी ठीक वैसा ही था, जैसा इस देश में बौद्ध, जैनी, वा वैष्णव और शात्तों का परन्तु प्रजा में ऐसा एका एक तीसरे भिन्नधर्मी, विदेशी राजा के अनेक कूट नीति विशारद प्रधान राज कर्मचारियों की दृष्टि में उनके स्वेच्छाचारपूर्ण शासन में कदाचित कुछ बाधक प्रतीत होने लगा। अगरेज़ी में एक कहावत है कि "फूट उपजाओ