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भारतीय प्रजा में दो दल

और शासन करो!" कदाचित् इसी नीति से सरकार ने अपनी सेवा के अर्थ हिंदू और मुसलमनों की नियुक्ति में एक प्रकार के न्यूनाधिक्य का ऐसा पचड़ा फैलाया, कि बहुतेरे लोमान्ध अर्थ पिशाच उभी का रबाना पीट पीटकर अपनी उदर पूर्ति के लिए अच्छा उपाय देख निज भोले भाईयों को बहका चले। अवश्य ही ऐसे खुशामदी रटुओं ने इस रीति कुछ कुछ अपना स्वार्थ आ साधन किया, परन्तु साथ ही उन्होंने निज देश तथा जातीय बन्धुओं की अपरिमित हानि कर डाली।

वे मुसलमानों को समझा चले कि "हिन्दुओं को प्रजा के राजनैतिक स्वत्र माँगने दो, उनके उद्योग से भारत को जो राजनैतिक अधिकार मिलेगा, उसमें तो हम उनके संग स्वतः लाभवान होंगे किन्तु प्रकाशतः हिंदों के राजनैतिक आन्दोलन से विरोध प्रकट करते हुए मिथ्या शुश्रुषा कर इधर कुछ अनुचित लाभ को मो ले चलो। फिर हमारा अन्याय ही में कल्याण भी है, क्योंकि न्यायत: तो हम केवल पञ्जमांश सेवा प्राप्ति के भागी हैं। राजकर्मचारियों की मिथ्या शुश्रूषा के बल से हम सर्कारी सेवा में श्राधे से भी अधिक भाग को ले मरेंगे।" अधिकांश प्रदरदर्शी मुसलमान इस पर ढल भी गये। उन्होंने यह कुछ न समझा कि देश और जाति को केवल सेवा के अतिरिक्त अन्य अनेक स्त्रत्वों का भी आवश्यकता है। निदान बीस वर्ष पाछे अब उनको अपनी उस मोह-निद्रा से चौकने का अवसर मिला है। बहुतेरे लोगों को अपने उन अग्रगण्यों की कुनीति की हानियाँ कुछ सूझने लगी हैं। अलीगढ़ में जिसे वास्तव में अलीगढ़ अथवा अरब का बच्चा ही कहना चाहिये और जहां से प्रथम ही इस अन्धीनाति का प्रचार हुग्रा था, जहां कि "मुहामिडन ऐग्लो ओरियण्टल कालेज" रूप नये सर सैय्यदी साँचे के मुसलमान ढालने की टकसाल खुली है, जिससे अाजकल के नीम अँगरेजी ढाँचे के मुसलमान उस प्रान्त में अपने को मुसलमान जाति का भावी आदर्श बतलाते हैं, उनके नेता और अग्रगण्यों ने भी सम्प्रति मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है, कि अब हिन्दुओं से मिलकर हमें भी राजनैतिक अन्दोलन में स्वार्थ लेना चाहिए। यद्यपि सुयंग्य दूरदर्शी मुसलमानों का यह मत बहुत आगे से ही था, किन्तु देश के दुर्भाग्य से उनका विशेष भाग अपने नैसर्गिक दुराग्रह और अनुचित लाभ लोभ का वशवती हो अब तक इसके विरुद्ध अड़ा रहा।

अस्तु, यह अवश्य ही हर्ष का विषय है कि अब हमारे मुसलमान