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भारतीय प्रजा दो दल

हमारी और उन्हे घृणा वा विरोध सूचित हो वरञ्च यदि वे अपने नैसर्गिक द्वेष और दुराग्रह मे कोई अनुचित व्यवहार भी करे तो यथाशक्त उपेक्षा और क्षमा करना चाहिए। क्योकि यदि हमारा भाई कुछ अन्याय करता है तो उस पर यावत्सम्भव दया और क्षमा करना उचित है।

निःसन्देह मुसलमानों में दुराग्रह और स्वाभाविक द्वेष का अंश अधिक होता है, जिसका एक छोटा सा टटका प्रमाण यह है कि बंगाल में जब लोगों ने "वन्देमातरम्" कहना आरम्भ किया, तो जो मुसलमान हिन्दुओं के सग जातीय उत्सव में सम्मिलित हुए, इसके उच्चारण में रुकने लगे। अब कोई विचारवान् यह नहीं बतला सकता कि इसमे कौन सी धार्मिक हानि थी, किन्तु नही कुछ पार्थक्य होना ही उचित समझा गया। बुद्धिमानी ने उन्हीं संस्कृत शब्दों का पारसी उच्चारणानुसार उसी अर्थ से मिलता जुलता दूसरा पद "बन्देमादरम्" बनाया, जिसमे फिर कुछ भी आपत्ति का स्थान नहीं है। तो भी यह अनुकरण उनको न जँचा। वरञ्च उन्होंने "अल्ला अकबर" पुकारना प्रारम्भ किया। पूछिये तो, कि यह क्या मसजिद की नमाज है? ईश्वर के पवित्र नाम को भक्ति से लेना चाहिये, जिसके लिये अनेक अवसर हैं। यहा इसका क्या काम क्या आश्चर्य कि यदि अब किसी सभा से हिन्दू ताली पाटे तो मुमलमान छाती वा सिर पीटना उचित समझे। अस्तु क्या किया जाय, दुराग्रह से क्या चारा है, नहीं तो काशी कांग्रेस के अवसर पर हमने मि॰ अली मुहम्मद भीम जी महाशय को "वन्देमातरम्" मण्डली की यात्रा निकालते और उन्हे अति उच्च स्वर से 'वन्देमातरम्', कहते सुना है। अस्तु, जो हो, हमे अपने भूले भाइयों को येनकेन प्रकारेण सँभाल कर अपने देश, अपने और उनके हित का साधन अवश्य करना चाहिये।

गत बरीसाल की जातीय समिति के सभापति मि॰ रसूल ने अपने मुसलमान भाइयों के विषय में कहा था, कि—"देश के राजनैतिक आन्दोलन से अलग रह कर उन्होंने अपने को बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। उन्हे अपने नफा नुकसान की कुछ भी खबर नही। जो लोग उनके नेता बने हुए हैं, उन्हीं की कृपा से मुसलमानों की ऐसी दुर्गति हुई है। जाति की भलाई का खयाल छोड़ केवल स्वार्थ के लिए वह सरकार की खुशामद करते हैं। उन्होंने अपने जातीय भाइयों को पट्टी पढ़ा दी है कि देश के राजनैतिक मुसलमान से तुम्हें कुछ मतलब नहीं। तुम उन झगड़ों में मत यदि दरा सरकार की राय के विरुद्ध चले तो याद रखना एक मी सरकारी नौकरी न