पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२८३

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रंग की पिचकारी


"कवि वचन सुधा" के पीछे 'नागरी नीरद' ही ने होली का नम्बर निकाल लोगों को उसकी विधि बतलाई और प्रायः होलियों में वह अपना आरम्भ किया हुआ कर्तव्य करता ही जाता था। क्रमशः कलकतिये समाचार पत्र भी होली मनाने लगे; नहीं तो वे स्वदेशाचारानुसार प्रायः शारदीय पूजा ही में हँस लिया करते थे। यों देखादेखी जो लोग इधर होली में हँसने लगे, तो प्रायः निज योग्यतानुसार अपने पाठकों के मनोरञ्जन के हेतु भी होते रहे

और अवश्य ही कोई-कोई उनमें कृतकार्य भी हो जाते थे। यद्यपि वह एक ही रंग में शराबोर न भी दिखलाते, तथापि उनमें कुछ सुहावने रंग की पिचकारी के छींटों से सुशोभित दिखाते ही थे। किन्तु उन्हें देख कुछ लोगों ने बेरंग अथवा बेढंग रीति से भी रंग छिड़कना आरम्भ किया,—ठीक उसी भाँति, जैसे कि आज कल लोग अपने केशर, बक्कम, मजीठ व किंशुक और गुलाल के लाल और पीले रंग के स्थान पर विविध रंग की विलायती नीली हरी वा बेगनी रंग की बुकनी से बने विविध विरुद्ध रंगों को फेंक न केवल लोगों के वस्त्र ही बिगाड़ देते, वरञ्च देखनेवालों की दृष्टि को विरुद्ध दृश्य दिखला कर बतखाने के योग्य काय करते, योंही कोई किसी के मुँह में बलातू कालिख लगा गले में लतड़ियों की माला पहना जूतियाँ खा जाते हैं। सदूप कई लोग चाहे किसी को अच्छा लगे वा नहीं, कुछ बेढंगी बातें बक देने ही में अपने को कृतकार्य मानते हैं वास्तव में यह ठीक नहीं, इसी से ऐसों की दशा पर अगले कवियों ने कहा है कि—"होली खेलही न जाने, वह तो निपट अनारी!" सो यदि कोई अपने पत्र पाठकों को सुहाती हँसी ठिठोली से प्रसन्न कर सके, तो उसका होली मनाना सर्वथा उचित है, किन्तु व्यर्थ किसी का दिल दुखाने वा घृणा उत्पन्न कराने से कोई लाभ नहीं। युक्त-रीति पर गाली देने में भी रस आता और अयुक्त रीति पर स्तुति भी बुरी लगती है। इसी से इसमें इसका ध्यान रखना अत्यन्तावश्यक है कि जिसमें किसी को हँसी के स्थान पर रुलाई न आए। योंही जैसे लोग कालिख आदि के व्यवहार से किसी को कष्ट पहुँचाने ही के अर्थ होली के आने की प्रतीक्षा

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