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प्रेमघन सर्वस्व

लिये कि जिसमें नौजवानी की निशानी गालों पर बाल न आना—बाकी रहें। जैसा कि—

"सफाई उठ गई चेहरे की
जब खत का निकाल आया।
फिर वह कीमत कहां रहती है
जब चीनी में बाल आया।"

परन्तु इस कम्मल की लाल टोपी का सत्यानाश हो जिसने कि सब चेहरे की ज़ीनत ही मिट्टी में मिला दी। अब वह मिश्की जुल्फों की बनावट और पुरपेच काकुलों की सजावट किसके माथे हो, जिन्हें देख लोगों के दिलों पर सांप लोटते थे? हाय! अब तो सभी के सिर के बाल आठवें रोज कतर कर सामने कुछ काले बाल छोड़ दिये जाते हैं। फिर जब सिंगार का आधार बाल ही न रहा, तो सुरमा और मिसी का रंग ही कब जम सकता है? पान खाना तो मानो शरह के रू से हराम सा हो गया! अब बतलाइये कि शोभा का सामान बाकी ही क्या रहा? हां, वे अब अपने मुंह में एक एक लूकी जरूर धुसेड़ने लगे हैं कि जो बजुज आशिकों को गुल देने के और किसी विशेष सुबीते की वस्तु नहीं दिखलाती। हां, राह चलतीं, विशेषतः बेचारे पुरानी छूतछात के पाबन्द भोलेभाले हिन्दुओं पर थुकने का कुछ अच्छा सुबीता है, यों ही कुछ जबान टेढ़ी कर के बोलने का भी। नहीं तो वह गुदगुढ़ी की गुदगुढ़ाहट वा बड़े भचभचे की भचभचाहट और नैचे की भडभड़ाहट का आनन्द कहां? अंगरेजी जूतों का स्वाद तो मानो सभी भारतीयों को ऐसा भाया कि किसी को किसी चाल का कोई हिन्दुस्तानी जूता अब नहीं अच्छा लगता! सारांश, आज सबी हिन्दोस्तान निवासी चाहे वह आर्य सन्तान हो वा मुसलमान, हिन्दोस्तानी कहलाते लजाते. सफेद साहिब बनने की लालसा से अपनी पुरानी चाल-चलन को छोड़ने और दूसरों की ग्रहण करने में कुछ भी संकोच नहीं करते। उन्दै दूसरों की अच्छी बुरी की कुछ भी तमीज़ नहीं, उन्हें तो सीधा आँख मूंद वही करना भाता कि जो आज श्वेताङ्ग लोग करते हैं। ये औंधे खोपड़ी के लोग यह कदापि नहीं विचारते कि वे ऊष्ण प्रधान देशवासी हैं। अतः उनका अनुकरण हमें कदापि सुविधाजनक नहीं। उनकी कोड़ियों बकसुचे और तस्मों वाली पोशाक जो किसी घोड़े के जीन से कम नहीं, हमारे योग्य नहीं है। मगर नहीं, आज सब हिन्दोस्तानी अपनी आखों पर भाँति भाँति के चश्मों (ऐनक) के ढोके लगाये, मानो ऊपरी आँखों के साथ हिये