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प्रेमघन सर्वस्व


उन्होंने अपनी टोपी, जो हमारी टोकरी से कदापि कम नहीं होती—जिन में कितनी ही वास्तव में घास, फूस, वा सींक से चटाइयों सी बनी वा बुनी होती और जो प्रायः छाते के स्थानापन्न वा सरदी गर्मी और ओस के बचाव के अर्थ ही धारण की जातीं—उतारकर भारत भर की पगड़ी जो वास्तव में हमारी शोभा और इज्ज़त थी, उतार इज्ज़त उतार ली। वह अपनी जंगली पोशाक से बैठने में अशक्य होने के कारण खड़े होकर लघुशंका करने की चाल चला अधिकांश भारतीयों से भी इस पशुधर्म्म को अङ्गीकार कराया। योही उसी मूल कारण से नङ्गे नहा कर हमारे देश के असंख्य बेतमीज़ परदोषानुकरणशीलों को न केवल नङ्गा कर वस्तुतः नङ्गा बनाया, वरञ्च बहुतेरों को तो अपनी घृणित असभ्यता का सनकी बना उनसे वाह्यभूमि जाते समय जलपात्र उठाने का भी परिश्रम छुड़ा सर्वथा मार्किक कृमि बना डाला। हमारे देश के लोग स्वभाव ही से नकल करने में बड़े प्रवीण होते हैं, इसी से आगे के लोग दूसरों के अच्छे गुणों को चट ग्रहण कर लेते रहे, परन्तु अब के लोग तो बुरी बातें भी अपनाने लगे हैं। प्रथम जिन आर्य सन्तानों ने मुसलमानों से मांग निकालनी और चटक मटक कर बोलना सीखा उन की देखादेखी उँगलियों पर थूक लगा लगा कर किताबों के पन्ने उलटने लगे थे, अब अँगरेज़ों की देखादेखी जीभ से चाट चाट कर लिफाफा बन्द करने और पिन्सल से लिखने, एवम् दाँतों से कलम भी पकड़ चले हैं! जिस किसी से अगले छु कर नहाते थे, अब लोग उनसे हाथ मिला कर अपने को कृतार्थ मानते और न मिलाने पर निज मानहानि समझते हैं! निदान उस अँगरेज़ी सभ्यता की लीला का वर्णन ही क्या हो सके कि जिसके अनुकरण से भारत का सब प्रकार सर्वनाश हुआ है; तौभी भारत में आकर उसने अपना बहुत कुछ सुधार किया है कि जिसका आख्यान यहां अस्थानीय है। सारांश इतने ही में समझ लीजिए कि हमारे श्वेताङ्ग प्रभुओं ने अपने खान-पान और रहन-सहन में देश-काल का विचार कर बहुत कुछ उलट फेर किया है। वे अब यहाँ गर्मियों में काले कपड़े छोड़ प्रायः श्वेत वस्त्र पहनने लगे हैं, जो उन पर उतना ही बुरा लगता कि जैसे भारतीयों को काला कपड़ा धरे खाती है। उन के उजले मुंह पर काला ही अच्छा लगता है कि जैसे हमारी साँवली सूरत पर उजला कपड़ा। उन्होंने अपनी बहतेरी बेढंगी टोपियों को भी कुछ कुछ छोटी कर और सुधार कर उस पर पगड़ी का अनुकरण करना प्रारम्भ किया कि जो अच्छा ही कहा जा सकता है।