पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२९६

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भारतवर्ष की दरिद्रता


जिसके धन और प्रशस्त भूमि की प्रशंसा, जिसमें प्रायः पृथ्वी मात्र की सबी वस्तु उत्पन्न होती हैं, संसार भर करता था; जहाँ सामान्य ऋतुओं के भोगने से देशियों को किसी दूसरे स्थान को जाने की आकांक्षा तक नहीं होती, और जहाँ की खाने सबी अमूल्य रत्नों को उत्पन्न करती, कोई भी प्रस्तर ऐसे नहीं हैं जो यहाँ उत्पन्न न होते हों; जिसके समृद्धि पाने की लालसा ने पहले समर विजयी सिकन्दर और सिल्यूकस को हिमपूरित पहाड़ों को ढकवा मैसीडोनिया के लम्बे भालों को यहाँ चमकाया, और फिर पीछे लुटेरे पहाड़ियों को उपद्रव और प्रलय फैलाने को बुलाया; जिसके खोजने में विलायत की कम्पनियों ने न जाने कितनी जहाजें डुबाई, धन खोया और मनुष्यों को भी साथ ही साथ समुद्र में समाधि लेनी पड़ी, उसके दरिद्रता के कारण आज उपाय खोजी जा रही हैं। कौन समझ सकता था कि जो इतने रत्नों का आगार था, जिसके धन की प्रशंसा परदेशी कवियों ने की थी और जो इसी के लिए संसार भर में विख्यात था और जिसके ऐसे होने की शंका और प्रभुत्व पाने की इच्छा से आज कई पुरुषों से रूस घात लगाये है और अब ऐसा विकृत रूप धारण किये है, उसकी अब ऐसी दशा हो जाय कि जो अपनी उपज से इतर देशों को भी खिलाता था, वह अपने वासियों को दिन भर में एक बार भीन खिला सके। क्या भारतवासी व्यवसाय और परिश्रम बुद्धि और विद्या से हीन और शून्य तो नहीं हो गये; वा इस भूमि में वह शक्ति ही नहीं बच रही, जिससे जो केवल एक मनुष्य के परिश्रम से परिवार मात्र भोजन करते थे, अब सब के परिश्रम करने पर भी पूरे प्रकार से अटने के अतिरिक्त रात्रि दिवस पेट के चपेट से सँबई और साग, खजूर और गेहूँ की गाँठ तक का लाला पड़ा है। ऐसी दशा कैसे हुई और कैसे जो सुख का आकर था आज दुःख का विवर हो रहा है। इसी विषय पर आज हमें कुछ कहना है और उनके मिथ्या आश्चर्यों को झूठा बनाना है जो व्यर्थ अपने मन की बकते हैं और ऐसी साक्षात् वस्तु को झूठी ठहरा इस देश की समृद्धि को कहते हैं कि तब से उत्तम

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