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प्रेमघन सर्वस्व

दाई हो और साझियों को निश्चय करा दिया जाय कि उनका धन रक्षित रहेगा और उचित कार्य में लगाया जायगा, इसके हानि लाभ का वे भाग्यानुसार भागी होगे, तो ऐसे कार्य असाव्य नहीं हो सकते परन्तु वहाँ के वासियों के स्वभाव में तो एकाकी रहना अकेले बर्ताव करना, रात दिन अपनी ही क्षुद्र रक्षा में पड़े रहना अच्छा लगता है। इन्हे ऐसे कार्य न केवल सम्भव जान पड़ते हैं वरन् इन्हें यह निश्चय हो गया है कि ऐसे स योग मे एक दिन का निबटना कठिन है, क्योंकि मूर्खता मे उचित व्यवसाय की समझ इनमें नहीं हैं। अपने मन से जो चाहै वह करे परन्तु उचित शिक्षा और मन्त्र के मानने में अपना अपमान समझते हैं क्योंकि वे अपने अर्थ के जानने में संसार भर मे किसी को कुशल नहीं समझते। यदि खाने पीने का ठिकाना है तो मूर्खता की अवधि में अपने को उस नियमित न्यून स्थान का नरेश मान जगत को तुच्छ समझते हैं। प्राचीन समय में जब इन्हें अपने देश वालों से केवल बर्तना पड़ता था तब तक तो किसी प्रकार इस अविश्वास और मूढ़ता से कोई विशेष हानि नहीं हो सकती थी, परन्तु परदेशियों के आगमन से ये बातें विशेष हानिकर हो गई है। देश भी इस प्रकार से दरिद्र हो गया है कि एकाएकी साहस करना कठिन हो गया है तो बिना समाजवद्ध हुए व्यापार की वृद्धि, देशी वस्तुओं का संग्रह, परदेशी वस्तुओं का त्याग कदाचित् होना सम्भव नहीं है। भारतवर्ष के २५ करोड़ वासियों में कोई भी ऐसा न होगा जो विलायती कपड़े न पहिनता हो और दूसरी आवश्यक सामग्रियों को इन्हीं विलायतियों के घर की बनी न लेता हो। जब आवश्यक शारीरिक वस्त्र को हमे परदेशियों से लेना पड़ता है, तब धन का रहना कैसे सम्भव है, निदान व्यापार का नाश हो जाना ही देश की दरिद्रता का मुख्य कारण है। नाममात्र का एक व्यापार जो यहाँ के व्यापारी करते हैं जिन्हे इस व्यापारीन कहकर दल्लाल कहेंगे, क्योंकि वे विलायती वस्तुओं के बेचने के विचवई हैं, यद्यपि किसी प्रकार इनकी जीविका चली जाती है तथापि इस देश के धन की वृद्धि दल्लाली से नहीं हो सकती।

इनमें व्यापार के विषय में कहा है कि व्यापारियों के व्यापार में हानि पहुँचने से उन सबों को इतर दोनों भागों को लेना पड़ा है यही कारण मुख्य है जिससे कृषिकारों को भी वही दुःख भोगना पड़ा है जो सब भोग रहे हैं। खेती ही एक शरण व्यापारियों और चाकरों को मिली है। जितनी