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भारतवर्ष की दरिद्रता

प्रजा हिन्दुस्थान की है उनको किसी न किसी तरह पालना कृषिकारों के मत्थे पड़ा है। दयालु भारतभूमि ने अपने अङ्क में लक्ष्मी से तिरस्कृत, शक्ति और विद्या से शून्य हस्तकारी में मुग्ध, आधुनिक यन्त्र और पदार्थ विद्या में अकुशल, इसी से इतर देशियों के बराबर काम करने में अशक्त अपने आलसी सन्तानों को स्थान दिया है। परन्तु अब वह भी अपनी सन्तान की वृद्धि के कारण उनके सबके पालने में निश्चय असमर्थ सी देख पड़ रही है। प्राकृतिक शक्ति ने भी इसे जवाब दिया है। निरन्तर पीड़ित होने से इसमें अब उपज की शक्ति भी वैसी नहीं रही और खेतों के कर के बढ़ जाने से उनके मालिकों में परिवर्तन हुआ करता है। किसानों को इस परिवर्तन से धनहीन हो जाने के कारण समय पर उचित दयाशील त्राणदाता के न मिलने से कुटिल और निर्दय छोटी पूँजी वाले बनिये तथा और अल्प महाजनों की शरण लेनी पड़ती है, जो उनकी हड्डी तक चूस जाने में अन्याय और पाप नहीं समझते। नित्य प्रति देखने में आता है कि असामियों को बिस्तार के कारण कितना कष्ट उठाना पड़ता है, कितनी दूर इसी के लिए उन्हें निष्फल जाना होता है, चुटकी बजाना पड़ता है। और केवल इसीलिए कि उन्हें समय पर बिसार मिल जाय, जिसकी सवाई या यह डेढ़ी अपने दयाशील [?] महाजन को थोड़े ही दिनों में लौटा दे। कितने खेत बिसार न मिलने के कारण परती रह जाते हैं। यदि बिसार भी मिला तो समय पर और जितना चाहिए उतना नहीं मिलता। लाचार हो जहाँ १२ वा १३ पन्सेरी बीमा डालना चाहिए वहाँ ६ वा ७ पन्सेरी डाल सन्तोष कर लेते हैं। जानना चाहिए कि जिन्हें बिसार की इतनी कमी है उनके कर के-लेन देन की क्या दशा होगी। एक बार ऋणी हो जाने से किसान के गले की फंसड़ी महाजन के हाथ हो जाती है, और वह जीते जी इस ऋण से मुक्त नहीं होता क्योंकि इसकी गणना महाजन के अधीन रहती है। अनपढ़ किसान मारे भय के यूँ तक नहीं कर सकता, अपनी बात नहीं खोता, महाजन नहीं बिगाड़ता, क्योंकि कल को फिर कहाँ जायगा। यह बात सही है कि गल्ला महँगा बिकने से किसान को अब उतना ही अन्न में विशेष लाभ होता है। परन्तु व्यय की वृद्धि से और ऊपर कहे गये कारणों के उपस्थित होने से किसानों को हर तिहाई केवल थोड़े दिनों के भोजन के अतिरिक्त सब अन्न कर तथा महाजन के व्याज ही के अर्थ बिक जाता है और वह पूर्ववत् शाक तथा और मोटे अन्न जो अन्य देशों में