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प्रेमघन सर्वस्व

पशुओं को दिये जाते होंगे खाकर दिन बिताता है। जहाँ पर जंगलों का आधिक्य है वहाँ पर पशुओं के कारण किसानों को जो कुछ कष्ट होता है अकथनीय है। निरन्तर रक्षा पर भी शस्त्र-हीन होने से पशुओं से तिहाई का वचना कठिन है, ग्रामों के स्वामी लोग सरकारी तहसीलदारों से बिना कर दिये नहीं छुटकारा पाते। हंसी से वे अपने असामियों से निर्दयता से, चाहे उनके खेतों में वर्षा तथा और कारणों से कुछ भी उत्पन्न न हुआ हो, कर भर लेते हैं। देवात् दो तीन वर्ष यदि उक्त कारणों से किसान को कुछ भी न मिला तो उसे खेती त्यागना पड़ता है। अन्तिम शरण से दुर्भिक्ष के कारण न मुखमोड चोरी और भिक्षा की ओर दौड़ता है इसी से किसानों को वनपशनों के समान मनुष्यों से भी तिहाई की रक्षा करनी पड़ती है। निदान करके बढ़ने से, परती ऊसर तक के उठ जाने से, इसी से पृथ्वी के तृणविहीन हो जाने से पशुओं के दुख पाने से, दरिद्रता के कारण जलाशयों के न होने से, अन्न का परदेश चले जाने से, नित्य परिवर्तन से, खेती ही की ओर और मार्गों के रुक जाने से सब के दौड़ने से किसान भी नित्यप्रति दीन और दरिद्र होता जाता है। जब इस देश में परदेशी नहीं थे और राज्य का भार देशियों पर था, अब इसी देश के लोग नौकरी पाते थे। अब विदेशी राजा के होने से नौकरियां विलायतियों को विशेष कर दी जाती हैं। और देश के लोगों को परिश्रम कर उनके विद्यानों के पढ़ने पर भी नौकरी नहीं मिलती। यदि ये विदेशी यहाँ नौकरी कर यहीं रह जाते और अपने धन को इसी देश में रखते तो थोड़ा बहुत उपकार इस देश का उनसे होता, पर वे तो नौकरी कर कड़ाकुल पक्षियों की भाँति ऋतुपरिवर्तन होते ही पिन्शिन ले उड़कर अपने देश को चले जाते हैं। हमारे देश की दरिद्रता तब पूर्ण रूप से अत्यन्त हो जाती है। जब कोई नौकरी खाली होती है तो सहस्रों प्रार्थनाएँ उस स्थान के लिये की जाती हैं इतने लोग बेकार ही रहते हैं जो चारा देखते ही भूखे टूट पड़ते हैं। हमारे देश में उन जातियों के सिवा जो सदा से नौकरी कर आई है और सबों को इसकी विशेष चाह नहीं रहती थी, वरन् पराधीनता गहित मानते थे, दरिद्रता में अब सब नौकरी ही नौकरी चिल्लाते हैं। परन्तु शासकों का विश्वास हमारे ऊपर है। हमें भारी पदों के देने से सिटापिटाते हैं यद्यपि जिनसे शंका उन्हें हो सकती है वहाँ हमारी पहच असम्भव है। बहुत दिनों से यह देश आशा लगाए ताक रहा था कि कभी विलायत जाने