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भारतवर्ष की दरिद्रता

का अड़ंगा छूटता तो इस देश के कुलीन बिना जाति च्यूत हुये अच्छी नौकरियाँ पाते, यदि उनकी भाग्य अनुकूल होती और न्यायपरायण इङ्गलैड के साधारण जनों ने अपनी भाषा से आशा दे दी परन्तु असाधारणों की लोलुपता ने जो कलयुग में सब से बढ़ गई है, यद्यपि इसके अपरिमित कोषों के भरने में इस देश ने बहुत कुछ सहायता की है तथापि इसकी हाय हाय नहीं नहीं छूटी, अस्थिमात्रविशेष को भी खण्डित कर निगल जाया चाहती है, इस आशा को दृष्टि से देखा है और मुख्यतः इस अभागे देश के कूरग्रहों के निर्दय दृष्टि ने ऐसी लाभदायक आज्ञा को पलटना चाहा है।

निदान धनोपार्जन के उपायों की दशा तो यों है परन्तु इसे कौन देखता है। साधारण लज्जा ढांकने मात्र के निमित्त स्वच्छ धोती और धुले कुत्ते को नगरों में पहिने लोग धन की जांच करते हैं। गाव में लंगोटी चढ़ाये पेट खलाड़े दुर्भिक्ष का रूप बनाये, चौथे उपवास पर भोजन पाने बालों को देख कोई नहीं कह सकेगा कि इस देश के चौथाई निवासियों के अर्थ सदा काल नहीं पड़ा रहता। परन्तु दानशील देश इनकी यह दशा नहीं देख सकता, किसी न किसी प्रकार इनके प्राण की सुरक्षा करने से नहीं भागता। परन्तु जब एक देश का विशेष अंश सदैव के लिये ऐसी दशा में निमग्न हो जाता है तो राजा और दैव के अतिरिक्त इनका उद्धार कौन कर सकता है? राजा जैसा कुछ चेत किये है प्रत्यक्ष हैं। परमेश्वर की कृपा भाग्य और कर्म के अनुकूल होती है कर्म कर्म को क्या कहना है।

फाल्गुन १९५० वैक्रमीय