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कांग्रेस की दशा

के अर्थ व्यय का कोई निश्चय प्रबन्ध कर दिया जाय तो भविष्य में इसके अर्थ इतनी झंझट न उठानी पड़े और कांग्रेस के जीवित रखने के विषय में जो कुछ स्वागत कारणी सभा की ओर से सन् १८९५ की प्रयाग कांग्रेस में पंडित अयोध्यानाथ की मृत्यु पर शोक करते हुए पंडित विश्वम्भरनाथ ने कहा है उतना ही कह इसको समाप्त करते हैं। पंडित जी यों कहते हैं कि "......इसी भाँति मुझे अत्यन्त शोक है कि वह सज्जन देश हितैषी हमारे बीच में नहीं रहे जिनका छाया-चित्र देखता हूँ तत्व नहीं है। मैं उनके पादत्राण को बलात्कार पहिनने के लिए अपनी इच्छा के प्रतिकूल बाधित किया गया हूँ। अभागे परिवर्तन और शोचनीय परम्परा ने यह समय मेरे लिये उपस्थित किया है। दुःख का विषय है कि हमारे प्रधान पुरुषों की मृत्युसंख्या बेप्रमाण बढ़ी है। उनकी असामयिक मृत्यु और प्रभाव से हम लोगों को असह्य दुःख सहना पड़ता है। हम लोगों को, जो इस क्षेत्र में बच गये है उचित है कि उसको पूरा करें जिसे वे दुर्भाग्यवश पूरा न कर धक्के यह हम लोगों का कर्तव्य है कि हम लोग उनके पवित्र स्मारकचिन्ह की बुद्धि' कर चिरस्थायी करें और इस विषय के सिद्धि के अर्थ हम लोगों को उचित है कि ईट पर ईंट, रद्दे पर रद्दा, और छत पर छत, उद्यम कर स्थापित करते चले जाँय, जब तक कि हम लोगों के स्वच्छन्दता के मन्दिर का कँगूरा बाँछित उँचाई को न पहुँच जाय, और उन लोगों के आश्चर्य और अत्यन्त ब्याकुलता का कारण न हो जाए जो इसे अनुचित अविश्वास और शंका से देखते आये हैं।"

मार्ग शीर्ष १९५१ वै॰

 

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