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प्रेमघन सर्वस्व

चार, कभी-कभी अमानुषीय कर्म, यह सब हमें इनके राज्य के कारण सहने पड़ते थे, परन्तु धन के रहने से यह अतिगर्हित क्षुधा पीड़ा इस देश में न थी, लोगों को अशान्ति, निर्दयता, धनापहरण, अरक्षा से दुःख सहना पड़ता था, देश की ऐसी मरभूखी आकृति न थी धन और धान्य से पूर्ण प्रजा की दशा कुछ ऐसी शोचनीय न थी।

तो दिलीप रामचन्द्र और युधिष्ठिर के समय की चरचा जाने दीजिये, विक्रमादित्य. पृथ्वीराज, जयचन्द के समय पर मत ध्यान दीजिये, अकबर, शाहजहाँ और शिवाजी के दिनों की दशा पर मत मनन कीजिये; इधर जब से इस पश्चिमीय गोरे पद ने इस पवित्र भारत भूमि पर दृढ़ता से स्थिति जमाई और ऐहिक व्यसनों की कला दिखला भोले हिन्दू समाज पर प्रबल आघात की, तबी से यदि बिचार कीजिये तो यह निश्चय होगा कि इस देश का रंग और रूप कैसा बदल गया और बदलता जाता है कि-संस्कृति के प्रेमी उन्हीं की जाति वालों को इसके परिवर्तन पर परम खेद है। इन्हीं २०० वर्षों में क्या का क्या हो गया जिनके पूर्व पुरुष मणिजटित सिंहासन पर बैठते थे उन्हें विलायती काठ की चमकीली कुर्सी ही बहुत सोह रही है जिनके देखने से सिंह को भी भय लगता, ऊपर से नीचे तक शस्त्रों से सजे वीर, अब उन्हीं की सन्तान जनानखानों में पतली छड़ी लिये अंग्रेजी जूता की ऐड़ी खटखटाते कुत्तों से भुकवाते ऐंठे चले जा रहे हैं। जिनके शिर पर बहुमूल्य रत्नों से जटित सिर पेचें लगी पगड़ियाँ रहतीं अब उनके शिरों पर दो पैसे की दो पलड़ी टोपी हवा लगते उड़ी जा रही है। ५० वर्ष की अवस्था में जिनके बाप दादों की जवानी खिलती उन्हीं के लड़कों की अब दूध के दात भी नहीं टूटते कि आँखों में चश्मा लगाने की आवश्यकता होती ३०, ४० वर्ष में उनकी सब गत हो जाती दरिद्रता के मारे जन्मे नहीं कि उन्हें कमाने खाने, नोन तेल लकड़ी की खोज पड़ी, लड़कपन ही से संसार में फँसने से बुढ़ाई दौड़ पाती। उचित भोजन न मिलने और चिन्ताग्रस्त हो जाने से शरीर पतला दुबला रह जाता, मुख्य भोजन दुग्ध ही भारतवासियों का था वह अब जंगलों के कट जाने और उसरों के जोते जाने से पशुओं की दुर्गति के कारण मिलता ही नहीं, फिर बहुत ही कम अवस्था में विवाह हो जाने से और विशेष कर बुरे संगत में पड़ने से आज कल के युवकों की दशा बहुत ही शोचनीय है। आगे समाज का भय उसकी प्रबलता के कारण सब लोगों पर था। कोई वृहत्समाज की आवश्यकता इन क्षुद्र दोषों के सुधारने की नहीं थी।