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प्रेमघन सर्वस्व

आवेंगे इसी से मनुष्यता इस देश की दिन पर दिन क्षीण सी हुई जाती है। इन दुराचारों के रोकने का साहस कौन कर सकता है? आधुनिक गर्वनमेन्ट अपने ही देश में इस विषय मे कुछ नही कर सकती तो यहाँ क्या कर सकती है।

विदेशी व्यापारियों ने भी लूट का डंका बजा ऐसा इस देश के व्यापार को सत्यानाश किया कि जितनों की जीविका इससे चलती थी जिनके गृह में व्यापार करने की परिपाटी चली आ रही थी, अब वह घूमते चिल्लाते चार पैसे की मजदूरी ढूँढ़ रहे हैं। विलायती व्यापारियों ने जैसी कुछ दीन दशा इस देशकी की और किसी प्रकार कभी हो ही नहीं सकती थी। जो प्राचीन नगर ब्यापार में विख्यात थे अब वहाँ खडहरों का दृश्य विदेशी व्यापारियों के निर्दयता को सूचित कर रही हैं। हम लोग इस योग्य नहीं कि अपने ही उपज को अपने काम मे ला सके हमारी आलस्य और अमीरी जली रस्सी के पेंच सी छुटें ही गी नहीं उपाय बिना कुछ होना सम्भव हो नही सकता। कपड़े ही की ओर यदि केवल ध्यान दीजिए, तो यह निश्चय होगा कि भारत भूमि में इतनी रुई ईश्वरेच्छा से होती है कि हमैं दूसरे देश से उसे मँगाने की आवश्यकता नही, परन्तु क्या दीन जुलाहे का कल से काम लेने वाले मैन्दस्टर के लुटेरू जुलाहे के सामने कुछ चल सकता है? यदि ऐसा हो सकता तो भारत के जुलाहे अपना काम छोड मारे-मारे न घूमते। देश का धन परदेश न चला जाता, साधारण पूँजीवालो का काम बिलायती व्यापारियों से सामना करने का नहीं है, और जिनके पास कुछ है, उनकी गाथा यदि विस्तार से लिखने का अवकाश हो तो एक जन्म एक लेखक का उन्ही की कथा के लिखने मे बीत जाय। देश के ऊपर उनका ध्यान तो कदाचित्त स्वप्न मे भी नहीं होता, मरै व जिऐ, मूर्ख हो वा पण्डित, धर्मी हों वा अधर्मी, उनसे कोई प्रयोजन उन्हे नही हैं, उन्हें खाने और आनन्द मर को भगवान दे दिया है आनन्द की निद्रा को छोड़ उन्निद्रित हो आँख खोल पराये के दुख के देखने और व्यर्थं उनके अर्थ कुछ परिश्रम का कष्ट उठाने से उन्हें क्या लाभ होगा? पाठकगण इन बातों के सोचने पर जी क्या कहता है परन्तु अफलाने से प्रयोजन ही क्या साध्य होगा? परमेश्वर की कृपा से इपर दो चार ऐसे प्रतिष्ठित युवक अपने अधिकार की योग्यता अपनी प्रजा को दिखला रहे है कि उससे बहुत कुछ आशा हम लोगों को हुई है। बिना प्रधान धनमानों के चेत किए