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भारतवर्ष के लुटेरे और उनकी दीन दशा

कभी कुछ होना सुलभ नहीं है। उनमें से महाराज मैसूर ने जिस प्रणाली पर चलना ग्रहण किया है उसी को अनुकरण करने की सम्मति हम लोग अपने विख्यात कुलीन धनमानों को देंगे। राम राजा की भाँति सुवर्ण का तुला दान देने और करोड़ों रुपया दे कुछ ब्राह्मणों को अयाच्य करने से देश की दशा सुधर नहीं सकती और जो युरपीय ढंग बदलने में केवल उनके अवगुणों को खींचते, बाल करते; पोलों खेलते, पार्टी देते, घुड़दौड़ दौड़ाते, न केवल अपनी उपहास कराते वरन अपने उचित कर्तव्यों के पूर्ण अयोग्य बनते जिनकी रक्षा और सुधार का भार भगवान ने उनके हाथों सौंपा है उनकी दुर्गत देखते नहीं लजाते, यह ऐसा भारत का अद्वितीय कठिन समय या उपस्थित हुआ है कि यदि श्रीमानों ने अपनी योग्यता में कसर की तो उजड़ तो गया ही है निजीव भी हो जायगा। देश का उद्धार करना उनका परम् कर्तव्य है इस की सामर्थ्य भी भगवान ने उन्हें दी हैं।

यदि वृटिश गवर्नमेण्ट से हमें कुछ इन विषयों में आशा होती तो उक्त महानुभावों से व्यर्थ कहने की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु क्या जिसे देश के पालने का भार भगवान ने दिया है उसे उनसे विमुख हो अपने आनन्द में निमग्न हो अपनी ही इन्द्रियों के सुखानुभव में दिन काटना अच्छा है? यह तो सभी कर सकते हैं। उनमें और इनमें फिर कोई भेद न रहा। फिर यदि प्रजा सुखी न रही तो उनके सुख का निर्वाह कहाँ तक हो सकता है। वह तो इन्हीं के मुख से सुखी हुआ चाहे। यदि विचार किया जाय तो व्यापार की ओर उनके विशेष दत्तचित होने से लाभ के अतिरिक्त हानि किसी प्रकार की नहीं हो सकती। अनुमान कीजिये कि यदि इस देश के राजा लोग एक बार इस बात पर तत्पर हो जाँय कि वे अपनी प्रजा को विलायती कपड़े पहिनने से रोकेंगे तो क्या गवर्नमेण्ट उनका कुछ भी कर सकती है। परन्तु आजकल के समय में धनमानों को प्रति पग फेंक कर धरना पड़ता है। करना न करना तो दूर रहे अप्रसन्न करने की चिन्ता से कोई ऐसा साहस करना कदाचित न स्वीकार करेगा! जहाँ थोड़ी झूठी वा सच्ची बातों में लोगों को अपने अधिकार ही का भय रहता तो यह करना तो बड़ी बात है। कौन ऐसा विदेशी अंगरेज़ है जिसकी भौंह इसे सुनते ही न चढ़ जायगी तो ऐसी निर्भीक उचित आज्ञा को देते हमारे यहाँ के महाराज लोग हिचकेंगे। परन्तु क्या सहमत हो एक बार व्यापार की ओर ध्यान देने से कोई हमें रोक सकता है? बम्बई और कलकचे में बहुत सा देशी कार्य प्रारम्भ हो गया है।