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भारतवर्ष के लुटेरे और उनकी दीन दशा


हमारे देश के धनी विलायती अमीरों की कभी भी धन में समता नहीं कर सकते ऐसे ऐसे धनी विलायत में हैं जो इन सब राज्यों को मोल ले सकते हैं। परन्तु यदि वे ऐसे ही देश के तथा-अपने कार्यों में निस्पृह होते तो उनके देश की ऐसी दशा न होती। उन्हें धन गाड़ हाथ पैर ढील आलस्य की निद्रा में सोना, सूद खाना नहीं भाता। थोड़ी आय के हो जाने से ठिकाना लगने और कुछ अधीनों पर अधिकार पाने से सुख में निमग्न हो राग रंग में लीन हो देश से नाता तोड़, घर बैठे उन्हें जँभाना नहीं अच्छा लगता। रंग विरंगे रंगो से रंगे मोम के पुतले से, कार्य की गरमी से पिघलने घाले देश के धनिकों से उनकी क्या समता है। जिन्हें चार पग चलने में हाँफा छूटता, रात्रिदिवस जिन्हें बेकार बैठा रहना भाता वा अनुचित संगत में हँसी ठिठोली करना, जीवन व्यर्थ व्यतीत करना ही संसार-सुख समझ पड़ता, उनकी उनसे क्या समता हो सकती है, जिन्हें अपने देश के निमित्त जीवन खोना, उनके उचित शासन तथा उचित स्वत्वों के अर्थ अपना सुख त्यागना उनके दुख में साथी होना एकमेव कर्तव्य है। इस देश की ऐसी शोचनीय दशा कभी हो ही नहीं सकती थी यदि इस देश के महाराज लोग ऐसे न होते। क्योंकि साधारणों का काम देश के उद्धार करने का नहीं हैं। परतन्त्रता ने साधारणों को निर्बल और दरिद्र बना दिया है इनमें वह तिग्मता जो विजयी जाति में होती है कभी आही नहीं सकती। इसी से जो काम बल से हो सकता था उसे धन से करने की आवश्यकता हुई है। सामना भी ऐसे लोगों से करना पड़ा है जो पृथ्वी में अपने बल और कौशल में विख्यात है। निदान यदि देशी महाराजों ने देश के व्यापार पर ध्यान न दिया तो कभी देशी व्यापार में उन्नति हो ही न सकेगी। कदाचित विद्या के प्रभाव से और कुछ मनुष्यता आने से १००/५० वर्षों में कुछ दशा इसकी सुधर जाय क्या आश्चर्य है; परन्तु यदि यहाँ के धनमान तत्काल इसके इच्छा पर तत्पर हो जाय तो जो २०० वर्षों में न हुआ उसको हम लोग थोड़े ही दिनों में हुआ देखेंगे। अँगरेजी राज्य में कर के कारण जो क्लेश कि किसानों को अब सहना पड़ता है वह पहले मुसल्मानों के राज्य में न था। पहिले तो तब की अपेक्षा कर इतना बढ़ गया है कि बिक्री का परता लगाने पर भी यह अधिक ही जान पड़ेगा क्योंकि पहिले उपज बाँट लेने की प्रथा विशेष थी। उससे जब प्राकृतिक कारणों से किसान को कुछ न मिलता बाँटने वालों को भी कुछ नहीं मिलता था, सब जमींदार चकलेदारों के