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प्रेमघन सर्वस्व

देना पड़ता था। इनके धावा व दौरे का एक समय नियत रहता और जब उनकी अवाई को अदेनिये किसान सुनते अपनी लाई। पूँजी किसी को सौंप उनके पहुँच से बाहर भाग जाते और उनके लौट जाने पर फिर घर लौट आते। और जो बाकी पड़ जाती उसको फिर वह कभी न देते। यह कहावत इस देश में निर्मूल नहीं है कि बाकी तो नवाब भी नहीं पाते।" अब इस घर छोर समय में कोई भाग कर कहाँ जा सकता है। सरसरी कुर्की और वारण्ट उनका पीछा नहीं छोड़ते। तब अधिकारी धनी थे, क्योंकि उन्हें शासन करने में इतना व्यय नहीं करना पड़ता था। जागीरों से उनका काम बहुत चल सकता था। अब शासन करने और करके इकट्ठा करने में सेना सजाने और न्यायालयों के खोलने में समय प्राय गवर्नमेंट की लग जाती है और रात दिन नई आय के उपायों के खोजने में गवर्नमेंट तत्पर रहती। इसी से जो निश्चित है उसको कैसे छोड़ सकती है। यदि एक वर्ष गवर्नमेंट चाहै कि वह भूमि कर छोड़ दे तो उसका काम किसी प्रकार चल ही नहीं सकता। पास पैसा नहीं है। इधर आया उधर गया।

ऋण का भार भी भारी शिर पर है गर्वनमेण्ट की धन सम्बन्धी दशा तो दिल्ली के बादशाहों के छोटे नवाबों से भी बुरी है। प्रबन्ध के निमित्त बिलायत के सेक्रेटरी आफ़ स्टेट से ग्रामों के चौकीदार और तहसीली के चपरासी तक जितने हर विभागों में कार्यकर्ता नियुक्त हैं उनका वारापार नहीं। यह सब के सब देश के धन के सोखनकारी हैं। परन्तु इतने पर भी सन्तोष इन्हें नहीं है। औरों को छोड़ यदि पुलिस की ओर ध्यान दीजिये तो जो कुछ देश के उपद्रव और शान्ति में इनका सम्बन्ध है दूसरे का वैसा नहीं है। इन्हीं के हाथ में प्रज़ा की रक्षा है, इनसे प्रजा को रात दिन बर्तना पड़ता है। इनकी कथा अकथनीय है। यह कछ गवर्नमेण्ट से भी छिपी नहीं है। गवर्नमेण्ट जी से चाहती है कि इनका सुधार हो। परन्तु कहाँ तक गवर्नमेण्ट इन्हें सुधार सकती है। वह पंजाब के लाट की गत वर्ष की आलोचना से जो उन्होंने पुलिस पर की है प्रगट है। उसके अनुसार यह फंठे अभियोग खड़ा करते और सच्चों को प्रायः गटकजाते। बहुत सी चोरियों की रिपोर्ट प्रजा नहीं करती कि पुलिस आकर व्यर्थ लोगों को तंग करेगी। पुलिस के सुधार के विषय में एक ही उपाय है जिसकी ओर गवर्नमेण्ट ने कुछ कुछ ध्यान दिया है। वह यह है कि जहाँ तक हो इस विभाग में योग्य पुरुषों का संग्रह हो और वेतन उन्हें अधिक दिया जाय जिससे उसे ऐसे लोग मिल सकें। हमारी समझ में तो