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नागरी के पत्र और उनकी विवाद प्रणाली

वह निज का आग्रह छोड़ कर निज समाज वा समूह के मत ही को निज पत्र में प्रकाशित करने पर वाध्य है। इसके विरुद्ध आचरण करने पर वह अपने धर्म से च्युत होने और अपने पत्र की प्रतिष्ठा भंग करने का दोषी है।

प्रायः भाषा की दशा के अनुसार पत्रों की भी दशा रहती है। अर्थात् उसी की उन्नति अवनति के अनुसार बा आधार पर पत्रों की उन्नति या अवनति निर्भर है, वरञ्च पत्रों की दशा न केवल भाषा मात्र का किन्तु तत्सम्बन्धी देश तथा जाति और सम्प्रदाय की दशा का भी मुख्य प्रमाण भूत है। अब जैसी दशा हमारी भाषा की है, पत्रों की भी उसले अच्छी होनो कब सम्भव है। तौभी सम्प्रति हमारे पत्रों में प्रायः अधिकांश पत्रों की विवाद प्रणाली बहुत ही बिगड़ी दिखाई पड़ती है। उसके सम्पादक आग्रह और हठ के वशवी हो अपनी मर्यादा को सर्वथा भूल गये हैं, और वे अपने वक्तव्यांश की कोई सीमा नहीं रखते। वे किसी दूसरे की कैसी भी उचित सम्मति को मानना तो दूर रहा अपने विरुद्ध सुनना भी नहीं चाहते। वरच अपने विरोधी को धन्यवाद के स्थान पर भी चाहे वह कोसों अन्याय की सीमा के भीतर क्यों न घुस जाँय ऐसी जली कटी और बेढंगी बातें सुनायेंगे कि जिससे उसका यातो फिर कुछ कहने ही का साहस न हो, और वह विचारा अपने उचित कहने पर पश्चाताप कर चुप रह जाय, वा उसी के तुल्य का अधिक प्रभावोत्पादक वाक्यों में उत्तर दे। परन्तु प्रायः मौनावलम्बन में पराजय की आशंका से लोग चुप नहीं होते, वरञ्च एक के स्थान पर चार सुनने ही पर सन्नद्ध होते हैं, और इस प्रकार परस्पर का कलह बहुत ही विरूपता धारण कर लेता है।

सम्प्रति हमारी भाषा के समाचार पत्र और पत्रिकालों के घोर आन्दोलन के हेतु दो विषय हैं,—प्रथम तो कुछ ऐसे भद्दे उपन्यास, वा नाटक कि जो मानों भारत के कई सच्चे कलंक से न तृप्त हो उसके सिर और भी झूठे कलंक लगाने ही के लिए लिखे गए हैं, नहीं तो क्या किसी विशेष रस वा कथा के समावेश के लिए अन्य जातीय पात्र के प्रवेश में कोई बाधा थी? विशेषतः उस दशा में जब कि वह घटना भी इतिहास अनुमोदित नहीं है। किसी किसी के उत्तर में यह भी कहा जाता है कि—"यह ग्रन्थ अनुवाद है, अतः दोषभागी भी लेखक मात्र है, न अनुवादक।" हाँ, जब हम यह देखते हैं कि मूल पुस्तक भी भारतीय भाषा ही में लिखी गई और लेखक भी उसके आर्य सन्तान ही थे, तो अवश्य ही भारत के भाग्य पर रोना