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नागरी के पत्र

तो क्या अनुचित करते हैं? तुम जाकर उसी से कहो! खेद का विषय है कि उन्हें इतने पर भी सन्तोष नहीं, वरञ्च वेद शास्त्र और पुराणों तक को भी ले दे डाला, और स्वार्थ के विपरीत उदाहरण होने के भय से ऐसी अनकहती बातें भी कर चले, कि—जिससे ऐसे विषयों में कुछ कहने का उत्साह ही जाता रहा, और अन्त को फिर उसी भारत के भाग्यपर पश्चाताप करना पड़ता है। निदान इस विषय के वादानुवाद के लेख देखकर अपनी भाषा के पत्र और लेखकों की दशा पर विचार कर चित्त में कुछ अपूर्व भाव उत्पन्न होते हैं कि जो कहने में नहीं पाते।

दूसरा विषय है, 'भारत धर्म्म महा मण्डल।' इस नाम की महा सभा लगभग बीस वर्ष हुए कि यहाँ स्थापित हुई, धर्म प्रेमी आर्यों के हृदय में धर्मोन्नति की बहुत कुछ आशा हुई थी, परन्तु अब तक लोग देखते ही रहे कि कोई सदनुष्ठान होता है कि नहीं परन्तु दो तीन अधिवेशनों को छोड़ और कहीं कुछ न सुनाई पड़ा। सभा के रजिस्टरी कराने के लिये भी तभी से चिल्लाहट मची थी, परन्तु न हो सकी। और जबी जब कोई सुव्यवस्था की बात चली, कि खरमण्डल मचा। तत्र विशेषतः इसका नाम भी किसी पत्र में नहीं सुनाई पड़ता था, और न किसी कार्यवाही की चर्चाही होती, आन्दोलन का भी विषय कोई न था, लोग दस पन्द्रह वर्ष तक मण्डल की रजिस्टरी कराने और सुव्यवस्था पूर्वक कार्य करने के लिये चिल्लाते ही रहे, परन्तु कौन सुनता था। अब जो उसकी रजिस्टरी हुई और कुछ व्यवस्था भी हो चली तो लोग इसी पर लक्ष्य कर उपहास और व्यङ्ग की बौछार छोड़ चले। हम यह नहीं कहते कि लोग सर्वथा उसके दोषों पर दृष्टि दें और उसके विरुद्धाचरण पर भी चुप रहे। वरच अवश्य ही सच्चे दोष दिखलाये उस पर आक्षेप करें; परन्तु गुण को भी उसी के साथ न समेंटें। मधु-सूदन। संहिता पर अवश्य तीव्र समालोचना करें, उसके निकृष्टांश की जो सतशास्त्र के विरुद्ध हो अवश्य निन्दा करें, परन्तु रजिस्टर्ड महामण्डल और सुव्यवस्थित मण्डल पर कटाक्ष कर उसे त्याज्य और उपेक्ष्य ठहराते उसके समूल नष्ट करने की कृपा न दिखाये और उसके किसी अधिकारी या कार्यकर्ता के स्वार्थ साधन अनुष्ठान और विधि विरुद्ध वा मण्डल के हानिप्रद कार्य को अवश्य रोके, परन्तु किसी की व्यक्तिगत निन्दा और न्यूनता का जिससे मण्डल वा सर्व सामान्य आर्य जाति का कोई हानि वा लाभ का सम्बन्ध नहीं है, आख्यात कर उसकी अंतरात्मा को कष्ट न पहुँचायें। और उसके उस