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प्रेमघन सर्वस्व

सदनुष्ठान को भी जिससे देश जाति वा धर्म्म का हित हो रहा है, निर्मूल कर धूल में न मिलाये। आज तो लोग उत्साहित होकर देश, जाति वा धर्म्म की सेवा कर रहे हैं, उन्हें अनुत्साहित हो छोड़ बैठने पर वाथ्य न कर दें। एवम इस प्रकार देश के सबसे अधिक उपयोगी और मङ्गलप्रद कार्य सदैव के लिये बन्द कर देने की चेष्टा न करें।

जहाँ तक हम समझते हैं इस समय जो मण्डल के विरोधी हैं वे इसके पूर्व कार्यकर्ताओं के समर्थक वा प्रशंसक हैं। हम भी उन पूर्व कार्यकर्ताओं के इस समय मण्डल से अलग होने से प्रसन्न नहीं, और न कोई मण्डल का शुभ चिन्तक वा उदासीन व्यक्ति इसको उचित लाभदायक मानेगा, परन्तु जहाँ तक हमको इसके समाचार अवगत हैं हम जानते हैं, कि उन्हें किसी ने इससे अलग करना भी नहीं चाहा था, वरञ्च स्वयम् ही उन लोगों ने इससे अपना सम्बन्ध त्याग किया है। तब कहिये कि इसमें अब दोष किसका है? उनके अलग होने का कारण जब अनुमान किया जाता है तो केवल यही समझ में आता कि वे कदाचित् किसी नियम के प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते और अपनी मनमानी कार्यवाही किया चाहते हैं। अब सोचिये कि इसे कब कोई देश हितैषी और धर्म प्रेमी उचित समझ कर स्वीकार करेगा? और कब ऐसा श्रेयस्कर हो सकता है? जब स्वतन्त्र राजे वरञ्च चक्रवर्ती सम्राट् भी। व्यवस्था के प्रतिबद्ध होते, तब भारत धर्म महामण्डल जो अनेक सम्प्रदाय सम्बन्धी एक वृहत् जाति की महासभा है, उसका भार व्यवस्था विहीन एक वा कुछ लोगों ही के माथे कैसे रह सकता है? क्या मिस्टर हम सरीखे भी स्वार्थ त्यागी, परोपकारी, सच्चे और अनन्य देश हितैषी ही के ऊपर समस्त इण्डियन नेशनल काँग्रेस का भार और आयव्यय का अधिकार छोड़ा जा सकता है? यदि सुव्यवस्था के होने से उनके अनचित स्वार्थ की कछ हानि न थी, तो उन्हें इससे पृथक होने की आवश्यकता भी न थी। और ऐसी अवस्था में चाहे कोई ब्रह्मा ही सा पूज्य क्यों न हो, परन्तु जो इसे प्रच्छन्न भाव से केवल अपने स्वार्थ साधन की एक सामग्री मात्र मान कर धर्म रूपी धोखे की टट्टी में अनाचार की चोट चलाना चाहता है, कदापि कुछ भी श्रद्धा का पात्र नहीं है। किन्तु जो देश वा धर्म की यथा नियम सच्ची सेवा कर रहा है, तो चाहे वह नितान्त नीचातिनीच अथवा परम तुच्छ छुयक्ति ही क्यों न हो, अवश्य आदरणीय है। और कदाचित् उसका कुछ स्वार्थ भी सह्य हो सकता है। किन्तु उतनाही, जितना "दाल में नोन" पड़