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नागरी के पत्र और उनके विराट प्रणाली

सकता है और जो इतने बड़े परिश्रम का वेतन वा पुरस्कार स्वरूप स्वीकार किया जा सकता है। हमने न तो पूर्वाधिकारियों को देखा न वर्तमान से वार्तालाप की। न इन दोनों में से किसी से कुछ भी सम्बन्ध रखते, और न इनमे से किसी के जय-पराजय या कीर्ति-अपकीर्ति से कुछ भी सहानुभूति। हमारा मान्य और श्रद्धा पात्र केवल वही है, जो स्वार्थ त्याग पूर्वक केवल सच्चे चित्त से धर्म और जाति की सेवा करता है। नवीन अधिकारियों के भी नितान्त स्वार्थलोलुपता और अनुचित आचरण के यथावत प्रमाणित होते ही उन्हे मण्डल से अलग कर देने में हम सब से पूर्व सम्मति दाता होंगे। वरञ्च उनसे अच्छे सहायक पाने पर यों भी उन्हें छोड़ देने में हम कोई आग्रह नही रखते। परन्तु स्वार्थ सारथी युक्त या बिना सारथी के रथ रखना नहीं चाहते।

यदि नियम के प्रतिबद्ध होकर प्राचीन अधिकारी कार्य न किया चाहे तो चाहे इतना बड़ा सदनुष्ठान मिट्टी ही में क्यों न मिल जाय, तो भी क्या कोई अन्य कार्यकर्ता नहीं नियुक्त करना चाहिए? वरञ्च पूर्ववत नियम रहित और व्यवस्था विहीन दशा ही में उन्हीं को कार्य करने की अनुमति दे देनी उचित है? एवम् केवल नाममात्र के मण्डल को किसी एक व्यक्ति के लाभ वा प्रसन्नता के लिए वैसे ही पड़ा रहने देना चाहिए। और यदि नवीन कार्य करता नियुक्त हुए तो क्या उनसे यह आशा की जा सकती है, कि जितने कार्य वे करें, किसी मे कुछ भी भूल वा दोष न हो, और कदापि कुछ सशोधन की आवश्यकता ही न पड़े? यह सर्वथा असम्भव है। जिस जिस कार्य को अगले पन्द्रह वा बीस वर्ष तक करके भी ठीक न कर सके, नयों को उसके लिये कुछ अवकाश भी देना चाहिये। अभी वे सर्वथा प्रारभ में हैं। सुतराम् जब तक जो जो कार्यकर्ता उस अधिकार पर नियुक्त है, उन्हें अपना प्रतिनिधि समझ कर केवल अनुचित आचरण के अतिरिक्त अन्य प्राय, सभी अवस्थाओं में हमें उनकी सम्यक् सम्मान सहित सबरीति से पूरी सहायता करनी, उन्हे उचित शिक्षा देनी, और अनिष्ट मार्ग से बचाते हुये ठीक पथ पर ले चलना चाहिये। अभी से बात बात में उनकी अकृत कार्य्यता पर जो वास्तव में हमारी जाति मात्र की अक्कृत कार्यता है, हँसने, और छोटी छोटी त्रुटियों पर भी बड़े बड़े आपेक्ष और निन्दा करने से हम उनसे अधिक अपनी अथवा अपने देश की हानि करेंगे। क्योंकि मण्डल के कृतकार्य होने पर अवश्य ही सदैव यह अधिकारी न रहेगे। परन्तु मण्डल

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