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प्रेमघन सर्वस्व

उदाहरण स्वरूप अपने आपको स्वयम् प्रमाणित कर रहे हैं। वास्तव में सर्वथा अपने स्वरूप को भूल कर अपने परम दुर्लभ मान मर्यादा को खो रहें हैं! वह आज क्या कहते हैं, कल क्या लिख देते हैं, और फिर परसों क्या कर बैठते हैं, इसे वे स्वयम् नहीं समझते। वे अपने कुत्सित कार्यों से न केवल अपने ही को कलुषित करते वरञ्च अपने संग अच्छों को भी निकृष्ट प्रमाणित, करते, और जाति मात्र को कलंकित किये देते हैं। काशी के सामहिक अनेक पत्र, पुस्तक, व्यवस्था और विज्ञप्तियाँ जिनके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। परन्तु हाय! तौ भी इन्हें कुछ भी शोक और लज्जा का आघात नहीं पहुंचता। कदाचित ये सर्वतोभावेन तिरस्कृत होकर भी न सोचेंगे। वास्तव में ये दुर्भाग्य के उन्माद में पड़ कर ज्ञान शून्य हो गये हैं। ये स्वयम् अपने स्वरूप और वाक्य का कुछ मान नहीं रखते। चाहे फल कुछ ही क्यों न हो, वा कुछ भी न हो, परन्तु कह देने वा कर देने में इन्हें किसी बात का विचार नहीं है। मण्डल के कृतकार्य होने से मुख्य लाभ यदि होगा, तो ब्राह्मण ही जाति का होगा। परन्तु हाय! उसके मूल्य में भी कुठाराघात यही महापुरुष लोग कर रहे हैं। इसमें भी अनुचित लाभ लोभ के वशीभूत हो वे भाँति भौति के अएवं आडम्बर खड़े कर रहे हैं। धन्य स्वार्थान्धता और!! धन्य भारत के भाग्य!!!

अब जिन्हें कर्तव्याकर्तव्य का विचार नहीं है। उचितानुचित का विवेक नहीं है। अथवा जो अपने लाभ के लिये समस्त देश की अति उत्कट हानि कर देने में भी किञ्चित संकुचित नहीं होते, उनसे कोई क्या कह सकता है अतः उनको यथार्थ पथ पर लाने का उद्योग भी करना व्यर्थ है, क्योंकि वे ब्रह्मा के कहने को भी नहीं मान सकते। तब केवल उसकी उपेक्षा करके उनके छल-छद्म और कपट जाल से बचना और अपने इष्ट उद्देश्य को उनके घोर और भयंकर आघातों से बचाना मात्र हमारा कर्तव्य है। सुतराम यही एक कार्य हमारे सहयोगियों और देश के प्रधान अग्रसर सजमों का है। वह लोग इस चारों ओर से मची चिल्लाहट पर विचार कर सत्य का निर्णय करें। वास्तव में जो दोष मण्डल में विद्यमान हों उनके शीघ्र दूर करने का उचित रीति से प्रयत्न करें। ईर्षा द्वेष और लोभ के बसीभूत हो जो मण्डल के विरोधी हैं उनकी बातों के सुनने सुनाने को छोड़, एक भारत धर्म महामंडल की सहायता और उसके शीघ्र कृतकार्य्यता के अर्थ उचित और यथेष्ट उद्योग करें। चमड़ों की चालों को मिथ्या और तिरस्करणीय प्रमाणित कर जन साधारण के भ्रम को मिटायें। और स्वयम् उस ओर से उदासीन हो स्वधर्म