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नागरी के पत्र और उनकी विवाद प्रणाली

और निज कर्तव्य की रक्षा करें। क्योंकि—आज कल इस विषय के जो लेख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते हैं उनके पढ़ने से सत्य और मिथ्या का निर्णय सर्वथा दुःसाध्य होगया है। बहुतेरों की लेख-शैली पक्षपात और आग्रह से भरी दिखाई पड़ती है। वह एक उदासीन न्यायकर्ता वा देश शुभचिन्तक की सी उक्ति नहीं प्रतीत होती, वरञ्च आग्रही वा द्वेशी की। और ऐसा होना देश जाति और धर्म के हानि का हेतु और भाषा तथा पत्र के अप्रतिष्ठा का कारण है।

हम यह नहीं कहते कि महामण्डल वा उनके नवीन कार्यकर्ता गण सर्वथा दोष हीन है, या उनके कृत्य में कुछ भी संशोधन की आवश्यकता नहीं है, वा उसके विषय में हम लोगों को कुछ भी वक्तव्य वा कर्तव्य नहीं है। संशोधनार्थ यथावत् आन्दोलन के भी हम विरुद्ध नहीं हैं। हमारा निवेदन केवल इतना ही है, कि—जो कुछ उचित आक्षेप और सम्मति हो वह इस रीति से कि जैसे कोई हितैषी मित्र अपने मित्र को शिक्षा वा सम्मति देता है। न इस प्रकार कि जैसे—कोई छिद्रान्वेषी दोषी। हम यह भी मानते हैं कि हमारे सहयोगियों के कई उचित आन्दोलन का कुछ अच्छा फल भी हुआ है, जिसके लिये देश उनका उपकृत है, और हम भी उनको उसके लिये धन्यवाद देंगे। परन्तु उनके निरन्तर अनेक व्यर्थ और अनुचित आक्षेप और आक्रमण ने मानों उनके निर्मल यश तन्दुल से कहीं अधिक विरोध और दूष की भूसी मिला कर उसका मूल घटा दिया। और उनका उचित विरोध भी स्वभाव सिद्ध सा प्रतीत हो उक्त शुभफल के कारण में भी भ्रम उत्पन्न करने लगा। उनके पत्र 'सनातन धर्म वा महामंडल के सहायक, रक्षक, शुभचिन्तक वा समर्थक से नहीं प्रतीत होते, और न उदासीन, वरञ्च इसके सर्वथा विरुद्ध।

हम न तो ऐसे झगड़ालू विषय को कभी लिखना चाहते, और न यह हमारा कार्य है। परन्तु जब हम देखते हैं कि—यह प्रबल विरोध वायु प्रवाह मंडल की बाल मज्जुललता को छिन्न भिन्न कर देना चाहता है, तो हठात चित्त चंचल हो अपनी लघुमति के अनुसार हमें अपने प्रिय सहयोगियों की सेवा में अति बिनीति भाव से उचित अनुमति देने पर बाध्य करता है। सुतराम् यदि हमारे सुयोग्य सहयोगी जन इस प्रार्थना को उचित समझ कर अब मण्डल की तुच्छ त्रुटियों पर दृष्टिपात न कर उसकी समयोचित सहायता करेंगे, तो देश और जाति की अमूल्य सेवा कर उसे अनुग्रहीत बनायेंगे।