क्योंकि वे सब प्रायः सनातन धर्म्मावलम्बी पत्र सम्पादक हैं। इसी से उनसे हमारा और उसका कहने का स्वत्व है। अन्यथा वे कृपाकर इस ढिठाई और हित के अर्थ कहे गये कटु वाक्यों के अर्थ हमें क्षमा करें। क्योंकि महाकवि भारवि के कथनानुसार—"हितम् मनोहारि च दुर्लभम्वचः।" हमारा कुछ निवेदन उन सहयोगियों से भी है कि जो साम्प्रतिक महामण्डल वा उनके वर्तमान अधिकारी और कार्यकर्ताओं के पक्ष में हैं, कि—आप लोग भी केवल न्यायपूर्वक सत्यांश के पक्षपाती हों, अनुचित आग्रह और आक्रमण अथवा कटु वा उपहासात्मक शैली को छोड़ शान्त और सरस भाव से खण्डन मंडन और वाद-विवाद करें। यदि उचित के समर्थन में कोई गाली भी दे तो सहन करें, चुप रहें, परन्तु जैसे का, तैसा उत्तर न दें। क्योंकि उत्तर उसी का देना योग्य है कि जिसमें आवश्यकता हो। अनुचित और अन्याय पूर्वक प्रश्न का उत्तर मौनावलम्बन मात्र है।
उपसंहार में हमें उभयपक्ष के सहयोगियों से यही प्रार्थनीय है कि जिस प्रकार आज कल विवाद की प्रणाली चल रही है, वा जैसे जैसे विचित्र चित्र परिहास वा पञ्च, सम्पादकीय प्रबन्ध वा प्रेरित पत्र प्रादि साम्प्रतिक पत्रों में प्रकाशित होने की चाल चल रही है, वह न केवल नितान्त दूषणीय और' निन्दनीय वरञ्च बहुत ही विशेष हानि प्रद है। अतः अवश्यमेव त्याज्य और संशोधनीय है। हम नित्य प्रति देखते हैं, कि आज कल सामान्य से सामान्य विषय के लिखने में भी अति असामान्य रति पर प्रतिवादी के चित्त में चुभने वाले भाव लाने का प्रयत्न किया जाता, और सीधी बात भी टेढ़ी करके कहने की परिपाटी चल रही है। चुटकियाँ ऐसी ली जाती हैं कि जो कदाचित चोखी छुरी से भी अधिक कतर ब्योत कर जाती, और सचमुच "हास्थेपित द्वदतियत्कल हेप्यवाच्यम्।" का स्मरण कराती है। पर पक्ष खंडन और निज के समर्थन में लोग अपने पापही को भूल जाते हैं। एक सामान्य अन्य के निकृष्टांश को विहित बताने में अपने उन धर्म ग्रन्थों को कि जिन पर आज बीसों कोटि आर्यों का पवित्र विश्वास है और जिनके गूढ़ रहस्य के समझने में आज अनेक आधुनिक विद्वान कान पर हाथ रख बत्तीसी दिखलाते, चटपट उनके कुछ अटपटे उदाहरण दिखला कर लोग निन्दनीय और दूषित बतला चलते। हमारे इतिहास के वे काले पृष्ठ जिन्हें हमारे विरोधी बड़े बड़े प्रयत्न से विचित्र कर गये हैं, उलट उलट कर हमें दिखाते हैं। जैनी, यवन, और कृस्तानों की दी गालियाँ हमें सुनाते और चिढ़ाते हैं। अवश्य ही अनार्य