पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३२८

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नागरी समाचार पत्र और उनके
सम्पादकों का समाज


सम्प्रति नागरी समाचार पत्रों के सम्पादकों के समाज संगठन की फिर चर्चा चल रही है। यद्यपि यह प्रस्ताव आरम्भ में उठते ही कुँभलाया सा दिखाता, क्योंकि जिन सम्पादकों ने इसका समर्थन भी किया है, वह भी ऐसी बेदिली और अनुत्साहित रीति से, जिससे आशा नहीं कि इसके संगठन में लोग कुछ अधिक उत्सुक हों, वह यह प्रस्ताव शीघ्र कृतकार्यता को पहुँचे; तो भी इस आवश्यक विषय की उपेक्षा करनी उचित न समझ कर इस पर कुछ विचार करने की आवश्यकता बोध होती है, चाहे उसका कुछ फल हो अथवा न हो।

हम देखते हैं कि प्रायः हिन्दी समाचार पत्रों में अच्छे से अच्छे प्रकार पर तर्क पूर्वक यथावत निर्णीत और प्रतिष्ठित पुरुषों से किये गये किसी कैसे ही प्रयोजनीय प्रस्ताव पर भी दूसरे लोग कुछ ध्यान नहीं देते। यद्यपि राजनैतिक वा धार्मिक आदि प्रचरित विषयों पर लोग निरन्तर कुछ न कुछ लिखा करते, किन्तु उसमें भी दूसरों के कैसे ही मूल्यवान स्वतन्त्र मत को कदापि अपने पत्र में स्थान नहीं देते। नित्य नवीनों को छोड़ प्राचीन और प्रचरित पत्र पत्रिकाओं की भी समालोचना करते, किन्तु केवल कटाक्ष और दोष उद्धाटन ही के लिये, कभी किसी के अच्छे लेख के विषय में तो चार अक्षर भी नहीं लिखते और किसी अच्छे प्रबन्ध को अपने पत्र में स्थान दान तो पाप समझते। कदाचित् वे इसमें अपनी मान हानि मानते और यह जानते कि उनके ग्राहक गण कहीं यह न समझ लें कि सम्पादक महाशय स्वयम् ऐसा लेख नहीं लिख सकते, इसी से औरों के लेख से पत्र भरते हैं, अथवा दूसरों को कदाचित् कुछ लाभ पहुँच जाने से डरते हैं कि ऐसा न हो कि कुछ तृतीयावृत्ति लोग इस लेख को देख उसके नवीन ग्राहक बन जायँ। नहीं तो क्या कारण है कि नागरी के किसी पत्र व पत्रिका में संग्रह स्तम्भ नहीं देखने में आता, जिससे किसी एक पत्र के पाठकों को अनेक पत्रों के अच्छे लेख के देखने का अवसर

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