पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९७
नागरी समाचार पत्र और उनके सम्पादको का समाज

मिले। मानों उनमें परस्पर ऐसा बैर है कि जब तक किसी को कुछ टेढ़ी सीधी बातें सुनानी इष्ट न हो, कोई एक दूसरे का नाम भी लेना नहीं चाहता और पराई प्रतिष्ठा करना तो मानो वे जानते हो नहीं। ऐसी दशा में जबकि सहज सहानुभूति दुर्लभ है तो परस्पर एक दूसरे की उन्नति साधन की चेष्टा की क्या आशा हो सकती है?

जब कभी इनमें किसी बात के विषय में परस्पर मतभेद के कारण विवाद उपस्थित होता, तब उनकी लीला ही कुछ विलक्षण हो जाती है। हम कभी आगे लिख चुके हैं कि—हमारी भाषा के पत्रों की लेखशैली विशेषता विवाद प्रणाली बहुत ही बिगड़ती चली जा रही है; अभी श्री वेङ्कटेश्वर समाचार ने भी अपने एक पत्र प्रेरक के पत्र को प्रकाशित करते उसके विषय में अपनी यों सम्मति प्रकाशित की है कि "खेद की बात है हमारे हिन्दी के लेखक किती विषय का प्रतिवाद भद्दी कड़ी बात बिना कहे नहीं कर सकते है"। उक्त पत्र भी उसी कड़ाई का दुःखदाई नमूना है। प्रतिवाद करते समय हम पत्र सम्पादक लोग भी प्रायः ऐसा ही नमूना दिखा देते हैं। उस समय अपने समान किसी हिन्दी लेखक को भी उसके चरित्र सम्बन्धी अवान्तर बात कह कर हम अपने पाठकों की रुचि को बिगाड़ने के साथ साथ समझा देते हैं कि हम एक दूसरे का सम्मान करना नहीं जानते हैं। जब तक इस कलङ्क से पार हम नहीं पा जायँगे तब तक हमारे चरित्र में पूरा पूरा बल नहीं आवेगा।"

सरस्वती सम्पादक पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी और भारत मित्र सम्पादक बाबू बालमुकुन्द गुप्त का अति उत्कट विवाद जो व्याकरण विषय पर उठ खड़ा हुआ था और कदाचित् वह अब शान्त भी हो गया सा दिखाता, हमारी सेवक और सुलेखकों की लेख शैली वा विवाद प्रणाली के देखने का अच्छा उदाहरण हैं जिसमें एक पक्ष के लोग दूसरे का अपमान करने वा उनको मनस्ताप देने के अर्थ यथा शक्य कोई उद्योग शेष छोड़ते नहीं दिखलाते। जब वे जली कटी बातों के कहने से नहीं अधाते तो गालियों के भी ओले बरसाते दिखाते हैं।

पंडित महावीर द्विवेदी ने सरस्वती में जो व्याकरण विषयक प्रथम लेख लिखा था, उसमें चाहे उनके मत से किसी किसी को किसी वा कई स्थानों पर विरोध क्यों न हो; अथवा उसमें अशुद्धियों के वे उदाहरण जो उन्होंने ऐसे