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प्रेमघन सर्वस्व

सम्मानित लोगों के लेखों से संग्रह किये हैं जिन्हें लोग प्रचलित नागरी भाषा के परसाचार्य मानते और जो बहुतों को दुखदाई होने के कारण अनुचित कहने के योग्य क्यों न हो अथवा उनकी लेखनी ने दूसरों की समझ में जो और प्रमाद किया हो, वा जहाँ कहीं उस लेख में शब्द अशुद्ध, वा पद बेकैड़े और सुविज्ञ अनुमोदित शैली से फिसलते क्यों न हों, जिसे उन्होंने अपनी समझ, रुचि और योग्यतानुसार लिखकर सर्वसाधारण के समक्ष निर्णयार्थ उपस्थित किया; उस पर न केवल मिस्टर आत्माराम अथवा बाबूबालमुकुन्द गुप्त वरञ्च सबी को सर्वथा अपनी स्वछन्द सम्मति प्रकाशित करने, दूषण देने, खण्डन वा संशोधन करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है; किन्तु हाँ, केवल वहीं तक जितने अंश पर विवाद है, अथवा जो अशुद्ध, दूषणीय वा आक्षेप के योग्य है। जहाँ जिसकी समझ में जो अंश अनुचित हो, वह उसका तिरस्कार कर सकता है, अशुद्धियां जता सकता, संशोधन वा खण्डन कर सकता है, किन्तु उचित और सभ्य रीति से। व्यांगोक्ति वरञ्च सुहाता उपहास भी बिना किसी रोक टोक के कर सकता है, परन्तु वैसा और उतना ही जितना परस्पर सभ्यों में होता और शिष्ठता की सीमा का उल्लङ्घन नहीं करता और न कहीं से उसमें आन्तरिक पारस्परिक द्वेष की दुगन्धि आती हो। यों ही जो लोग स्वर्गीय निज भाषा के बड़े बड़े आचार्यों के भी, जो वर्तमान हिन्दी के सुलेखकों के उस्ताद कहे जा सकते, क्योंकि आज वे उन्हीं का अनुकरण करते और उन्हीं की प्रदर्शित प्रणाली पर चल रहे हैं, दोषों को दिखलाते और लोगों से स्वीकार कराना चाहते, अपनी भद्दी से भद्दी भूलों को स्वयम् स्वीकार करना तो दूर, सुनना भी नहीं सहन कर सकते और व्यर्थ का वितण्डावाद करते; अथवा यदि कोई उनसे अपने आन्तरिक द्वेष का दाव ले रहा है जो उसके संग भी तूर मैं मैं करने पर बद्धपरिकर होते। वे यदि उचित उत्तर ढुंढ कर भी नहीं पाते, तो वलात बनाते, यदि आप थक जाते, दूसरे सहायक बोलाते, परन्तु यदि किसी ने एक पृष्ट में कुछ लिख दिया है तो पाठ पृष्ठ काला, किये बिना नहीं रहते, और आपस में एक दूसरे को कुछ भी कह देते दूसरी ओर से प्रयक्ष धिक्कार और तू तुकार की मूसलाधार वृष्टि होती। यदि एक की ओर से कुछ काटछाँट और कलर व्यौत कीचुटकियाँ ली जाती, तो दूसरी ओर से सीधा चीड़-फाड़ प्रारम्भ हो जाता और फिर घृणित दुर्वाक्यों के बम के गोले चलने लगते "आप साक्षात मूर्ख हैं, आप को चार पंक्ति भी