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नागरी समाचार पत्र और उनके सम्पादकों का समाज

तो मानों उनके और उपदेशों के संग इसे अपना परम कर्तव्य ही मान लिया। उनके पत्र सदा सनातन धर्मियों को प्रायः ऐसे ही ऐसे असा वाक्यों से सम्बोधन करते रहे, जिसमें वे उसी को सुन सन्तुष्ट हो जाँथ आगे और कुछ कहने का साहस न करें। इधर के मूफट्ट लोग भी कुछ कुछ बैसे ही उत्तर देने लगे। यो क्रमशः मानों यह एक नई निन्ध शेली निकल पड़ी, जो अवश्य ही संशोधन के योग्य है। क्योंकि इसके द्वारा मुख्य विवाद ग्रस्त विषय छूट कर व्यर्थ घृणित वाकलह उत्पन्न हो जाता, जो अन्त को आन्तरिक देप के रूप में परिणत हो सदैव विपक्षी के उचित प्रस्तावों का भी विरोध और उससे अनुष्ठित कैसे ही उत्तम सर्व-जन-हित-कार्य में भी केवल दोष दर्शन पर तत्पर कराता, बैर और फूट जिसकी योंही यहाँ बहतायत है और भी विशेष वृद्धि करता है।

हमारी भाषा के समाचार पत्र के कई सम्प्रदाय होने पर भी प्रधान दो हैं, अर्थात् सनातन धर्मी और दयानन्दीय प्राय जिनमें एक प्रकार नित्य ही विवाद उपस्थित रहता। इसी प्रकार अब सनातन धर्मियों के भी दो भाग, अर्थात् भारत धर्म महामण्डल के नये और पुराने पक्षवालों के भी समझिये जिनमें आज कल प्रायः बहुत ही भद्दे रूप में विवाद हुआ करता है, जैसा कि सम्प्रति भारत मित्र और वेङ्कटेश्वर समाचार में चल रहा है, जो कुछ दिन पर्यन्त अति उत्कट रूप धर कर लोगों को प्रणा उत्पन्न करके अथवा कदाचित् राजकार तक जाकर तब शान्त होता दिखाता है। इसी प्रकार अन्य कारणों से भी जो परस्पर पत्र सम्पादकों में मनोमालिन्य उत्पन्न हो जाता, उससे प्रायः ऐसे प्रस्तावों के भी आन्दोलन और अनुमोदन में जिससे सर्व सामान्य के हिताहित का घनिष्ट सम्बन्ध रहता, सर्वथा बाधा पड़ती है।

पाठक वर्ग! अब टुक विचारिये कि यदि हमारी भाषा से सामयिक समाचार पत्रों की वह दशा है जो इस देश की प्रजा के सुख-स्वरूप है, जिनकी उन्नति और अवनति के साथ देश और उसकी प्रजा की उन्नति या अवनति का अटल सम्बन्ध है, अथवा जो हमारी दशा के प्रमाणभूत है; तो यह कहाँ तक शोक और परिताप का विषय है। अतएव बिना विलम्ब के सर्वप्रथम इस बढ़ती हुई अनिष्टप्रद प्रचरित प्रथा को रोकना सर्वसजन सहृदय विशेषतः सब पत्र सम्पादकों का परम धर्म है। सभी विषय का प्रतिवाद और खण्डन मण्डन उपरोक्त दोष रहित रीति से भी हो सकता है। सुतराम् आगामि में इसी शैली का अनुसरण करना चाहिए एवम् सदैव