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नेशनल कांग्रेस की दुर्दशा

विलक्षण विरुद्ध विधि मिला, समग्र देश के २२ वर्ष परिश्रम, व्यय और सुयश को बात की बात में बर्बाद और नष्ट कर डाला। जो काँग्रेस बड़े-बड़े विघ्नों को झेलकर' भी अद्यावधि निर्विघ्न रह कर बालक से युवा हुई थी; जिसका आतङ्क हमारे बैरियों को कम्पित कर चला था; उसे इस दोनों दलों की दलादली ने दलमल कर समाप्त कर डाला।

परसाल कलकत्ते की काँग्रेस की व्यवस्था में उसके नवजात दोनों दलों के परस्पर मतभेद के विषय में हमारी लेखनी ने न जाने किस दुष्ट मुहूर्त में यह लिख दिया था, कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह कलियुग के भीष्म पितामह सद्दश केवल दादा भाई ही का कार्य था, जिन्होंने कौरव पाएडव सदृश नवीन और प्राचीन उभय दल को रोक कर मानो भावी महाभारत युद्ध को बन्द किया। नहीं, इसके शत्रुओं को तो यह निश्चय हो गया था कि बस, काँग्रेस आज ही से समाप्त हुई, क्योंकि यदि कौरव दल के महारथियों में द्रोण तुल्य—इत्यादि। सो उस बार कलकत्ते में तो बच गया, किन्तु सूरत में अबकी बार प्रत्यक्ष महाभारत होई गया, जिसमें कदाचित् ही ऐसा कोई प्रतिनिधि बच गया होगा, कि जिस पर उस लज्जास्पद मूढ़ता के संग्राम का कुछ न कुछ आघात न आया हो, जैसे उसमें भारत मात्र के चुने-चुने सब बीर और महारथी विद्यमान थे, वैसे ही इस समय के समस्त भारत के राजनैतिक महारथीगण इसमें भी सामिल थे, जैसे उसमें अनुचित लाभ, लोभ, द्वेष और दुराग्रह के कारण ही कलह बढ़ कर समग्र भारत की ऐसी हानि हुई कि जिसकी पूर्ति फिर न हो सकी। ईश्वर करे इस बार भी क्षति कुछ न्यून होती नहीं दिखाती है। जैसे उस बार दूसरे को अधिकार असह्य था और दोनों कि संघषर्ण अभिलाषा बलवती थी वैसे ही इस बार भी हाँ, उस बार बहुत दिनों तक युद्ध बचाने की चेष्टा की गई थी किन्तु इस बार न्यारा कर देने की ठहरी। शोक कि जिसे हमने गत वर्ष द्रोण और कृपाचार्य से समता दी थी, सूरत में इस बार वे दुःशासन और शकुनी बन गये। जिन्हें हमने धर्मराज और अर्जुन कह कर पुकारा था इस बार धृष्टद्युम्न वा शिखण्डी होते दिखाई पड़े—

योही जिसे कि शकुनी समझा था वह श्रीकृष्ण का अनुकरणकारी हुआ। जैसे उस बार एक ही घर के दो दल थे कि जिनकी रीतिनीति में परस्पर भेद था वैसे ही इस बार भी एक ही काँग्रेस के समिकों के दो दल थे और जैसे उसमें एक दल उग्र और दूसरा शान्त था, इसमें भी ठीक वैसे ही