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प्रेमघन सर्वस्व

सिद्धान्त के विरुद्ध एक दूसरे ऐसे उतावले दल का साझा—अवश्य ही असह्य होता है जो उसकी शक्ति और साहस से अधिक कार्य लेने का प्रयासी हो। किन्तु अब ऐसा साझी उत्पन्न हो गया तब विवश हो उसके सग मिलकर कुछ आगे बढ़ने ही से काम चलता है, न कि सर्वथा उपेक्षा वा उसको बलात् दबाने की चेष्टा अथवा सर्वथा उसके विसदाचरण से। गत वर्ष नर्म्म दल वाले प्राय विविध स्थानों पर न केवल विपक्षी दल के नेताओं को उचित सम्मान और सहायता देने में उदासीन रहे, वा सामान्य सभाओं में गर्म्म दल के बहुसंख्यक मत का तिरस्कार, ही करते रहे हैं, वरञ्च कहीं-कहीं उसके अस्तित्व को भी अस्वीकार कर दिया करते थे, जो बहुत ही अनुचित है। प्रयाग की एक सर्व सामान्य सभा में हम लोगों को स्वयम् इसके देखने का अवसर मिला था कि उपस्थित सभ्यों मे उग्र नीति वालों की अधिक संख्या होने पर भी शान्त दल वालों की ओर से उनके मत का तिरस्कार किया गया था। अवश्य ही उसमे शक्तिशाली और सम्भ्रान्त भाग प्रायः शान्त नीति वालों ही का अधिक था, किन्तु अधिक सख्यक उग्र नीति वाले भी मूर्ख और अप्रतिष्ठित न थे तब सभा को या तो सामान्य रूप न देकर विशेष देना था, नहीं तो उपस्थित अधिक लोग मत को स्वीकार करना ही उचित था। ऐसी ही कार्यवाही प्रायः और ऐसे ऐसे अवसरों पर सुनी गई, जहाँ कि सभा के कार्य में विघ्न पड़ा है। फिर जब सभ्य समाज में ऐसी अन्धाधुन्ध की जायगी तब उसका परिणाम अन्यथाचार के अतिरिक्त और क्या होना है। तिरस्कार और अन्यर्थाचार का परिणाम केवल तिरस्कार और अन्यथाचार को छोड़े और क्या हो।

किन्तु शोक का विषय है कि गर्म्म दल की उग्रता और अधैर्य से नर्म्मो को अपना कार्य चलाना भी असम्भव प्रतीत होने लगा और इसमें सन्देह नहीं कि जिस दमा और सन्तोष को अवलम्बन कर काग्रेस अर्थात् नर्म्म दल अपने विपक्षियों के विघ्नों को घटाता, अब अपने अधिकार को यथावत् स्थापित कर सका है। उग्र नीति वालों ने दो चार वर्ष भी उस धैर्य, क्षमा व सन्तोष से कार्य न लेकर अपने निपट उतावलेपन से उसी अपने आधार को छिन्न-भिन्न करना प्रारम्भ किया कि जिस पर उनकी स्थिति है। वे उस कार्य के आरम्भ आज तत्पर हो गये कि जिसकी उन्हें कुछ दिनों तक और प्रतीक्षा करनो यो। अर्थात् जब तक उनका देख