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नेशनल कांग्रेस की दशा

के झगड़े में केवल पक्षपात वा आग्रह को छोड़ और कुछ विशेष तत्व न था; जिस कारण अन्त को उग्रों को उसे समझ बूझ कर छोड़ देने पर भी तत्पर होना पड़ा था।

रही चारों प्रस्ताओं की बात, १—अर्थात्-स्वदेशी स्वीकार, २—विदेशी बहिष्कार, ३—राष्ट्रीय शिक्षा और ४—स्वराज्य; सो वह सब कलकत्ते की काँग्रेस में स्वीकार कर लिये गये थे और इस बार भी अवश्य ही स्वीकृत होते, वरञ्च अन्त को शान्त दल के 'कनवेनशन' द्वारा स्वीकृत भी हुये हैं। कुछ शब्दों के संशोधन मात्र का विवाद था कि जो उचित अवसर पर भी हो सकता था। जिसका अवसर उग्रों की उग्रता, अधैर्य वा दुराग्रह से न आने पाया कि जो बहुत ही परिताप और लज्जा का विषय है। सारांश यदि सूक्ष्म विचार से देखें, तो विवाद का कोई विशेष कारण नहीं लक्षित होता, केवल संशय के अन्धकार और प्रमाद में पड़े, ईर्ष्या, द्वेष से विवेक शून्य लोगों से दुर्भाग्य ने ऐसे अनिष्ट उपद्रव करा दिये कि जो न केवल देश के तटस्थ शुभचिन्तकों, वरञ्च उभय दल के प्रधान-प्रधान अग्रगण्यों के भी परम परिताप के हेतु हुये हैं। निःसन्देह जिन लोगों ने बहुतेरे कायों को केवल विपक्षियों के सन्तोष और क्षमा पर विश्वास कर, वा कुछ वाद-विवाद के बाद पूर्ववत् चला ले जाने की आशा से सहज खिलवाड़ समझा था, अन्त को वे उसके विषमय फल को पा पछता-पछता कर अब एक दूसरे को दोषी सिद्ध कर इस कलङ्क से बचने के प्रयासी होते देखे जाते है।

सच बात तो यह है कि दोनों दल परस्पर दोनों का विश्वास खो चुके थे, दोनों को एक दूसरे के दबा देने में न समर्थ होने पर अलग हो जाने का संकल्प-दृढ़ था। शान्त दल जब विवश हो काँग्रेस को सूरत में ले गया, तो उग्रों ने अपनी अलग महासभा नागपुर में ही करनी चाही थी। तब हमें मान लेना पड़ता है कि मानों मेल की आशा न रख दोनों पृथक-पृथक हो जाने पर तुले बैठे थे। अवश्य ही मेल की कुछ बातें उग्र दल की ओर से सूरत में छिड़ी, किन्तु जब अवस्था प्रायः असाध्य हो चुकी थी और परस्पर विश्वास का सर्वथा नाश हो चुका था, तो भी शान्त दल की ओर से मेल के विषय में आनाकानी करनी उनका ऐसा दोष और प्रमाद सिद्ध करता है किजिसका कोई उचित उत्तर उनके पास नहीं है। वास्तव में जब तक कि दोनों दलों के नेताओं को यह निश्चय न हो लेता कि अब सब झगड़े की बाते परस्पर निपट गई, कभी काँग्रेस पिण्डाल में प्रकाश्य सभा नहीं करनी चाहिये थी।