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नेशनल कांग्रेस की दुर्दशा


यद्यपि सामान्यतः दोनों दलों के दोष और अत्याचारों की आलोचना आज हो रही है, किन्तु सच पूँछिये तो उनके दलपतियों ही के दोषों से समग्र दल पर दोष लगा है, क्योंकि मुख्यतः दोनों ओर के दोई एक दलपतियों की भूल और प्रमाद से ऐसी दुर्दशा हुई है। शान्त दल वालों में से सब से अधिक उपालम्भ के भागी सर फ़ीरोज़शाह मेहता है जो सब से विशेष अनुभवी हैं। उन्हें केवल "यशस्तुरक्ष्यं परतो यशोधनैः" की नीति का अवलम्बन न कर मिस्टर ह्यूम की शिक्षानुसार यथासाध्य काँग्रेस को इस प्रकार भग्न होने से बचाने की चेष्टा करनी चाहिये थी। हम यह मानते हैं कि उनों की उग्रता सीमा उलङ्घन करती जाती थी। किन्तु उन्हें मनाकर ही काँग्रेस का प्रकाश्य अधिवेशन करना था अथवा सभापति का निर्वाचन उपस्थित सम्मति संख्या ही पर रख कर विवाद को उचित आगे देकर निबटारा करना चाहिये था। दूसरे मि॰ गोखले को पूर्वोक्त कृत्यों के अतिरिक्त प्रस्तावों के संशोधन के विषय में अपनी सम्मति को पुनः उचित स्थान पर समावेशित करने का यत्न कर उपस्थित विघ्न को निवारण करने की चेष्टा करनी उचित थी। अब इनसे अधिक दोषारोपण डाक्टर रास बिहारी घोष महाशय और मि॰ मालवीय पर यों आता है कि उन लोगों ने तिलक महाशय की उपसूचना और आपत्ति के निपटारे का भार उपस्थित सभासदों पर न छोड़ कर अपनी संकीर्णता का परिचय दिया। अवश्य ही उग्रों को यदि किसी अन्तरङ्ग सभा द्वारा शांत दल शांत नहीं कर सकता था तो उनकी आपत्ति को सर्व सामान्य सभासद समूह के समक्ष उपस्थित कर उसे उनकी संख्या और शक्ति की परीक्षा कर लेनी अवश्य ही उचित थी।

इस बार सुयश के भागी एक लाला लाजपति राय, तथा उत्कट और अमिट अपकीर्ति के भाजन वास्तव में सच्चे स्वदेश भक्त होते हुये भी दैव कोप से परम निन्दनीय दुराग्रह और असन्तोष के प्रभाव से सम्मोह को प्राप्त हो पंडित बाल गङ्गाधर तिलक हुये। उन्होंने ऐसा कुत्सित कर्म कर डाला जो कदापि ऐसे महापुरुष के हाथ से होना उचित न था। जिनके अर्थ उन्हें पीछे पश्चाताप भी हुआ और कदाचित् आजन्म रहेगा, किन्तु हाथ से तीर निकल जाने पर क्या कुछ उपाय चलता है। इसी से मान लेना पड़ता है कि यह सब भारत के दुर्भाग्य का खेल है। अन्यथा 'मुनीनांच मतिभ्रमः' कैसे चरितार्थ हो सकता है। सभापति के चुने जाने पर चाह वह चुनाव कुछ विधि विरुद्ध वा अनुचित रीति ही से हुआ होता अवश्य ही उनको