पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३६

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प्रेम घन सर्वस्व

हो, वही भाषा है, ये आप लोग आकबत् का डर छोड़ आज कल के अदालत के इजहार की तरह, जो चाहिए कह डालिए।

कर बस पूछता है कि यह भाषा यहाँ की नहीं तोश्यया यूरप अमेरिका अफ्रिका के किसी जगली वा पहाड़ी असभ्य जाति की है, वा काबुल के मुगलों की, वा दुनिये के बाहर कही के शैतानों की बोली है, वही रायज है।

बङ्गाल देश की बोली बँगला, गुजरात की गुजराती, ओडीसा की ओडिया, और तेलङ्ग की तैलङ्गी, महाराष्ट्रों की महाराष्ट्री, इसी प्रकार अँगरेजों की अंगरेजी, जरमनियों की जर्मनी, और अरब की भाषा अर्बी के होने मे क्या प्रमाण आपेक्षित है। अन्त को इस प्रश्न का यही उत्तर है कि "हाथ के कान को आरसी क्या," जो भाषा जहाँ की है वहाँ बोली और वरती जाती है। समाचार पत्र और किताबे उसी भाषा में लिखी जाती हैं। फिर क्या कारण है कि हमारी भाषा जिसका अर्थ ही बोली है हमारी भाषा न समझी जाय, और आर्य भाषा अनार्यों की वा हिन्दी हिन्दुओं की छोड़ मुसलमानों की भाषा ठहराई आय रहा यह कि यह ईजादजदीद' अर्थात् नवीन निर्मित है और आज कल के लोगों ही से इसने जन्म पाया है। उत्तर में हमें इतना ही कह देना काफी होगा कि भाषा तो बनाई नही जा सकती किन्तु स्वयं बन जाती है। और यदि यह भाषा नवीन है तो क्या आगे के लोगों की बोली फारसी थी या अरबी? या अगले मनुष्य गूंगे थे या बोलने की आवश्यकता हीन थी और सहस्त्रावधि ग्रन्थ जो इस भाषा में मिलते हैं और तुलसीदास, सूरदास को छोड़ चन्द इत्यादि कवियों की कविता प्राचीन नहीं तो क्या आज की बनाई गई है, लोग चट कह बैठेंगे कि हजरत आप व्रजभाषा को क्यों ताने डालते हैं।

जानना चाहिए कि प्रथम जब संस्कृत यहाँ की मुख्य भाषा थी और सभ्य समाज राजकारी दरबार में बोली चाली या वार्ता की जाती थी, गद्य पद्य मय कविता इसी भाषा में बनती नृत्यादि में संस्कृत गान और संस्कृत नाटकों के अभिनय सर्व साधारण न केवल देखते किन्तु उनके गूढार्थ को समस्त प्रकार से समझते थे रात दिन की बोल चाल के फेरफार में ग्राम्य और स्त्रियादिकों से उसके अशुद्ध उच्चारण, और लाघव के कारण प्रकृत से सिद्ध प्राकृत प्रचलित नागरिक और सभ्य जनों के अतिरिक्त ग्राम्य