पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३६१

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कजली कुतूहल
कजली के मेले

जानना चाहिये कि कजली का त्योहार, उसके सम्बन्धी कृत्य और खेल तो बहुत पुराने हैं। कजरहिया[१][२] तालाब का मेला भी उसके बनने के साथ ही से लगने लगा। इसके पहिले वह भँटवा की पोखरी पर होता था। तलैया का मेला, बाद के मेले का साथी है। यह सब मेले सौ बरस से आरम्भ हुये हैं।

कजरहिया का मेला

नागपञ्चमी के अपराहन को सामान्य स्त्रियां कजरहिया तालाब पर गाती बजाती जाती और वहाँ से मिट्टी लाकर उसमें जयी बोती, नित्य पानी से उसे सींचती और रात को कजली गातीं, कुछ दुनमुनियाँ भी खेलती है। यों भाद्र कृष्ण २ को रात भर विशेष धूमधाम से गाती, बजाती, दुनमुनियां खेलती और रतजगे का उत्सव मनातीं हैं। रतजगे के भोर, अर्थात् भाद्र कृष्ण ३ को जिसे कजली तीज कहते, स्त्रियाँ अपनी जयी लेकर कजली गाती हुई उसी कजरहिया पोखरे पर जाती, नहाती और जयी सेरवाती, अर्थात् पानी में छोड़ देती हैं। कुछ नीच जाति की स्त्रियाँ वहाँ ढुनमुनियाँ भी खेलती हैं। पुरुष भी यह मेला देखने जाते हैं।

ढुनमुनियाँ का मेला

नागपञ्चमी से सामान्य और प्रायः नीच जाति की स्त्रियाँ रात को सड़कों में ढुनमुनियाँ खेलकर गाती, वैसे ही प्रायः सामान्य जन उसे वहीं खड़े होकर देखते हैं। आरम्भ से आज तक यह उसी प्रकार होता और वैसे ही लोग इसे देखते भी हैं।


  1. कजली का आरम्भ और उसकी समाप्ति भी वहां पर होती, अतः उसी के नाम से यह भी पुकारा जाता है।
  2. कजली का त्योहार, इसका मेला, इनके गीतों की उत्पत्ति, तत्व भेदभाव का विवेचन का प्रबन्ध।

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