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प्रेमघन सर्वस्व
 

रात का मेला।


अच्छे लोगों को जब इस उत्सव में कजली सुनने की श्रद्धा हुई, तो वे अपने अपने घर पर रण्डियों को बुलाकर नाच और गाना सुनना आरम्भ किया, परन्तु सर्व सामान्य को इसका आनन्द नहीं मिलता था। अतः चिरकुट पांड़े जो एक बहुत भारी रुई के दल्लाल थे और सहस्रों रुपया महीने कमाते, बड़े अमीर मिजाज़ और प्रतिष्ठित गिने जाते थे, पसरहट्टे की सड़क पर, जो उनके घर के सामने की सड़क है, कहते हैं कि यह मेला लगाया। उन्होंने रण्डियों को पहिले पूरा-पूरा इनाम अपने पास से देने को कहकर नाचने को कहा, कि जिसमें घर बैठे ही मेला देखने को मिले। उन्हें यह भी आज्ञा दे दी थी कि जो अन्यदर्शक जन उन्हें कुछ रुपया दें, उसे भी वे ले लें। यों जब उन्हें रुपया मेले में मिलने लगा, तो पांडेजी सामान्य ही रुपये देने लगे। क्रमशः इसकी उन्नति हो चली। कुछ लोग कहते कि रंडियों के घरों पर बिमनियों की इतनी भीड़ होने लगी कि स्थान के संकोच से उन्हें अपने-अपने घरों से नीचे नाचना पड़ा कि जिसमें ऊपर यारी के खार में लड़ाई भी न हो और लोग सड़क पर खड़े होकर सुनें और चलते हों। कुछ कहते कि गृहस्थिनों की भाँति इन्होंने भी अपने-अपने घर के नीचे स्वयम् नाचना आरम्भ किया था।

जो हो, श्रावण शुक्ल १९ से भाद्र कृष्ण २ तक रात को १० बजे से यह मेला होने लगा और बढ़ते-बढ़ते सुन्दर घाट से लेकर नारघाट तक फैल चला। सर्व सामान्य और विशेष जनों ने भी इसे देखना प्रारम्भ किया। मण्डी उस समय पूर्ण उन्नति पर थी, कलकत्ते के नीचे मिरजापुर ही का दर्जा था यही ब्यापार का केन्द्र था, एक-एक बया दलाल भी सौ-सौ दो-दो सौ इसमें फूंक तापते थे। यारों की परस्पर लाग डाँट और छूट[१] में तोड़े[२] कि तोड़े खाली हो जाते और रुपयों के भार से सफाइयों की सारंगियाँ फटती थीं क्योंकि रंडियाँ विसनियों से रुपया लेकर सारंगी ही में डाल देती हैं। कजली क्या बाती, दीन तमाशबीनों की मानों शामत बाती और सम्पन्नों के दिवाले निकलने का कारण होती थी। रंडियाँ मालामाल हो जाती कितनी उन्हीं दिनों की आमदनी से साल भर बैठी खाती थीं। शुहरत हो


  1. परस्पर दो दर्शकों की लाग डाँट में एक दूसरे से अधिक रुपए देने की होड़।
  2. हज़ार हज़ार पाँच पाँच सौ वर्ष अधिक रुपयों की टाट की थैली