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कजली कुतूहल


चली। दूर-दूर से वेश्यावें आने लगी और देश विदेश के व्यसनी और नृत्यमान के प्रेमी भी इस अवसर पर यहाँ आ उपस्थित होने लगे, काशी और प्रयाग तो मानो फट ही पड़ता था। काशिराज महराज भी अगले दिनों रात के मेले में रतजगे को पधारते थे। साथ में एक हाथी पर पार के बंगलेवाले और खमरिया के साहिब लोग भी होते,—जो यहाँ के बड़े बड़े भारी सौदागर थे, महाराज की ओर से प्रत्येक नर्तकियों को पाँच-पाँच रुपये मिलते, तो साहिब बहादुर भी चार-चार रुपये बाँटते थे। चिरकुट पाँड़े भी तामदान पर निकलते और वे भी सब को—मेला जग जाने और नर्तकियों की संख्या अधिक हो जाने पर—दो-दो चार-चार रुपये देते, और भी यहाँ के अनेक महाजन प्रत्येक को दो-दो एक-एक रुपये देते थे। राजमार्ग के दोनों ओर बाज़ार के बरामदों में सैकड़ों नर्तकियाँ नाचती और लोग नाच देखते थे। जो प्रतिष्ठित जन इस मेले में आते, अवश्य ही वेश्याओं को कुछ देते थे। सामान्य जन तो जिसका नाच देखते, उसी को कुछ देते और विशेष लोग दो-दो एक-एक प्रत्येक को बाँटते थे। किन्तु नगर के अवनति के साथ-साथ यह मेला अब समास हो गया। दस बारह वर्ष से बिल्कुल ही नहीं होता।

अमीरों के निज के जलसे।

ऊपर का कुछ प्राचीन वृत्तान्त तो सुना सुनाया है। परन्तु इसकी उन्नत अवस्था मैंने भी देखी है। पसरहट्टे का रात का मेला भी कई बार देखा है। तब तक भी दशा मेले की प्रायः पूर्ववत् थी। शहर में दस पाँच महाजन और रईसों के यहाँ कजली में नाच की महिफ़िलें भी होती थीं। इष्ट-मित्रों को लोग निमन्त्रण देते थे। मैं भी कईयों में बुलावे में गया हूँ। मेरे एक चचेरे चचा, बाबू उमादत्त जी को भी इसका शौक था। होली और कजली के दिनों में उनके यहाँ भी बराबर सात बाठ दिन तक प्रायः चार चार छ छ रविडयों का नाच होता और दो चार हजार इस खाते में भी जाता था किन्तु अब कहीं कुछ भी नहीं होता।

महन्त जी का मेला।

इस नगर के शोभास्वरूप श्रीमान् महन्त जयराम गिरि जी—जो यहाँ के बहुत बड़े प्रसिद्ध रईस और महाजन तथा बेनज़ीर अमीर थे—के यहाँ अलावा सामान्य जलसों के निज का एक बड़ा मेला श्रावणी पूर्णिमा के दिन शाम को उनके शिवाले वाले बाग़ में होता था। जिसने वह मेला देखा है, वह