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प्रेमघन सर्वस्व

चैत्र कृष्ण १ पर्यन्त माना जाता; तद्रूप यद्यपि बरसाती उत्सव (ज्येष्ठ) दशहरा से लेकर भाद्र शुक्ला पूर्णिमा तक विविध अवसर और स्थानों पर भिन्न भिन्न रूप और प्रकारों में होता, किन्तु मुख्य श्रावण शु॰ ११ से लेकर भाद्र कृष्णा ३ अर्थात् कजली तीज तक स्थिर है।

वास्तव में चार मास जाड़े से त्रस्त जगत जैसे वसंत को स्वाभाविक सुहावनी ऊष्णता पाकर नवीन रूप से विकसित होता, मनुष्यों के मुर्झाये मन भी प्रफुल्लित हो उठते और उनमें एक नवीन उत्साह उत्पन्न होता है। वे नगर और ग्राम के बाह्य प्रान्तों में घूम घूम कर धूम मचाते और गाते बजाते, हँसी ठठोली में समय बिताते आनन्द मनाते हुए प्रकृति की उस सुहावनी शोभा को देख देख सुध-बुध खोते मुग्ध होते, कि जिसे उन्होंने वर्ष भर पीछे देखी थी और उस सुखसामग्री से स्नेह करते, कि—जिसका नाम लेने से भी वे हेमंत से डरते थे। किन्तु जो कि इस ऋतु का अधिकांश आनन्द केवल बाह्य प्रान्तों में घूमनेवालों को मिलता, घर बैठनेवालों को बहुतही न्यून; इसी से विशेष कर पुरुषों ही के अर्थ यह उपयुक्त ठहरा और उन्हीं की इसमें विशेषता रही; अतएव बसन्तोत्सव का त्योहार भी प्रधान रूपसे पुरुषों ही का माना गया। इसी प्रकार चार महीने की गरमी झेले उसके अन्तिम भयंकर दिनों से व्याकुल जगत पानी पानी चिल्लाता, जब जगतजीवन की कृपा से जगतजीवन हेतु जीवन (जल) बिन्दु की वर्षा होती; असह्य तीव्र ताप तिरोहित होने से मानो पुनरपि जीवन पाता सा दिखाता और अचाञ्चक आई कलित काली बदलीसे संसार की बदली दशा देख आप से आप मानव मन आनन्द निमग्न हो मुग्ध होता है। सुतराम् इसका मुख्य मास सरस सुहावन सावन जिसमें घर बैठे ही सब सुख का सागर लहराता दिखाता, वरञ्च प्रायः बाहर निकलना भी दुरूह हो जाता है; जैसा कि—

भूमि हरी भई, गैल गई मिट, नीर प्रवाह बहाव महा है।
कारो घटान अँधेरी कियो, दिन रैन मैं भेद कछु न रहा है
'ठाकुर' स्पैन सों दूसरे भौन लौं जात बनैन विचार महा है।
कैसे कै भाव कहा करैं बीर! विदेसी विचारन दोस कहा है?

इसी कारण जिसके पूर्व व्यापारी और प्रवासी जन अपने घर लौटते और जिसमें अधिकांश प्रायः वियोगी जन संयोगी बनते, रमणियों को विशेष अनुकूल और प्यारा है। इसके आनन्द अनुभव के अर्थ न प्रायः कहीं जाने