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प्रेमघन सर्वस्व

उन समय और प्रायः उन्हीं क्रीड़ा कुतूहलों में एतद्देशीय बहुधा ग्राम्य नारियों से गाई जाने वाली एक विशेष गीत को कजली कहते हैं।

अब उस सुहावने अवसर के सहज स्नेह-रस से सिंचित अनूठी राग में सरसता होनी सर्वथा सम्भव है, क्योंकि प्रायः रसीली स्त्रियों की बनाई, उन्हीं के उस अवसर पर सूझे अनेक रसीले भोले-भाले भाव से भरी, उन्हीं की स्वाभाविक सीधी सादी रसीली भाषा से भूषित गीत हैं। जैसे होली के त्यौहार में अधिक आनन्द उद्गार के होने से विशेषकर ग्राम्यों ही में सर्वतोभाव से उसका आधार रहता,—राजा, महाराज वा महाजनों में तो केवल नृत्य, दर्शन, गान श्रवण, और कुछ रंग गुलाल मात्र से होली की पूर्ति हो जाती स्वयम् आनन्दोन्मत्त हो नाचना, गाना, बजाना, गाली और कबीर सुनाना वा होली जलाना, धूल उड़ाना और नाना प्रकार के खेल-कूद आदि समग्र आनन्द सामग्री, कि जो सचमुच वसन्तोत्सव, होली वा फाग का तत्व है, केवल ग्रामीणों ही के बाँटे पड़ा है-उक्त नागरिक और महाजनों को तो केवल कविता में उसका वर्णन मात्र सुन सन्तोष करना पड़ता; तद्रूप इसमें भी,—सम्भ्रान्त कुल कामिनियों की मनोरज्जन सामग्री तो केवल झूला मलना और गाना बाजाना मात्र है; उसमें भी मल्हारादि अनेक राग रागिनियों का समावेश रहता, किन्तु कजली खेल के संग गाना बजाना वा अनेक क्रीड़ा कौतुक एवम् वार्षिक उत्सव सम्बन्धी अनेक कृत्य विशेष में तो प्रायः ग्राम्य सुहासिनियों ही का भाग है। इसी से प्रधानता इसमें ग्राम्य भाषा और भाव श्रादि की स्वाभाविक होने से अति आवश्यक है, अतः इसकी रचना में भी विशेषता प्रायः उन्हीं की है। नहीं तो मध्य कुल कामिनियों को विशुद्ध मधुरी भाषा की कविता में उससे विशेष वा विचित्र रस और क्या होता, कि-जो मीराबाई, राय प्रवीन वा अन्य अनेक सुकवि स्त्रियों की कविता में पाया जाता है कि जिनमें और पुरुष कवियों के काव्य में कदाचित ही कुछ अन्तर है। कारण जिसका केवल यही है, कि—वे भी प्रायः पुरुषों की भाँति पढ़ी लिखी, उन्हीं की तुल्य रुचि और योग्यता की होती, अतः वे कविता में भी पुरुष कवियों ही का अनुकरण करती हैं, एवम् अपने को भाषा-शैली, पिङ्गल, ब्याकरण और साहित्य के अन्य बन्धनों से प्रतिबद्ध कर लेती।

सारांश इसकी कविता सर्वथा विलक्षण है और वास्तव में वह केवल उन्हीं ग्राम्य सियों ही के द्वारा बनाई जा सकती है, कवियों का प्रयत्न तो इसमें