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कजली की कुछ व्याखा

एक प्रकार से सर्वथा व्यर्थ है। क्योंकि यदि सच पूछिये तो यह कविता नहीं और फिर भी ऐसी, कि जहाँ कवियों की कविता कामिनी चौकन्नी हो दातों में उँगली दाये दूर खड़ी सोचती, कि— हमारी पैठ यहाँ कैसे हो? क्योंकि यहाँ तो न कोई कविता का प्रतिबन्ध, न उसके गुण संचय की चिन्ता। केवल सीधे सीधे सूझे भाव मात्र की कहनि है, परन्तु वह कहनि ऐसी है, कि जैसी कुछ! हमारे रचयिता विचारे का ध्यान यहाँ क्यों आने लगा और उससे फिर ऐसा कहते ही क्यों बनने लगा? वे कभी तो अपनी कृत्रिम भाषा को इस स्वाभाविक ग्राम्य स्त्री भाषा से अच्छा ठहरायेंगे और कभी इन सादे भावों को भोंडे और ग्राम्य कह कतरायेंगे; अपनी पोथियों के सहारे सौ सौ दोष बतलायेंगे, पर तो भी चाहे कितना हु मस्तिष्क लड़ायेंगे भाँति भाँति से अपनी निपुणता और पाण्डित्य दिखायेंगे श्रोताओं से धन्य! धन्य!! कहलायंगे, किन्तु वह सहज स्वारस्य कहाँ पायेंगे, कि लायेंगे, जो इसमें स्वयम समाई, सुन्दर सुहाती और स्वाभाविक है।

वह कजली कैसी होती, अथवा कैसी होनी चाहिये? यह तो केवल उन्हीं अवसर विशेष पर यहाँ की सामान्य रमणियों अथवा पात्र विशेष के मुख से सुनने से समझ पड़ सकता है, क्योंकि गीत है, और गाने का तत्व सुनने से समझ में आता है, नतु पढ़ने से। योंही स्थानिक राग के अर्थ स्थानिक ही गायक होना भी परमावश्यक है। अस्तु, यदि केवल कविता मात्र अथवा अदरों में उसका स्वरूप दिखलाने को कुछ कजलियों के उदाहरण दिये जायँ तो यद्यपि केवल दो-चार चरण लिख देने से उसकी रचना का यथावत् पता तो न लगेगा, तथापि दिग्दर्शनार्थ कछ यहाँ लिखते हैं,—

सामान्य आदर्श।

कवने रंग मुंगवा, कवन रंग मोतिया कवन रंग ननदी तोर बिरना?
लाल रंग मुंगवा, सपेत रंग मोतिया, संवरे रंग ननदी तोर विरना॥
फुटि जैहैं मुंगवा, चिटिकि जैहैं मोतिया, रिसाय रे जैहैं ननदी तोर विरना
बिनि लेबै मुंगवा बटोरी लेबै मोतिया नाइ रे लेबै ननदी तोर बिरना॥

कदाचित् इसमें व्याख्या की विशेष आवश्यकता नहीं है, सहृदय रसिक और सुविस कवि कोविद जन स्वयम् समझ सकते हैं कि इसमें कैसी कुछ विचित्रता और मनोहरता है। अथवा—