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कजली की कुछ व्याख्या

गालो गुफ्ते की तो कोई बातही क्या है, अच्छी स्वासी लड़ाई भी होती जाती, जूती पैजार और लाठी डण्डों तक नौबत आती है। कारण यह कि गाते गाते बोली टोली को छोड़ उसकाने और भड़काने वाले मजमून की भी कजलियाँ बना रखते, जो प्रायः बादी की गाई किसी अच्छी वा अनूठी कजली के जोड़ की निज मण्डली निर्मित दूसरी कजली न गा सकने पर गाते जिसके प्रत्युत्तर में उससे भी अधिक गाली गलौज भरी दूसरी मण्डली गाती है। इन कजलियों को वे लोग 'फटका' के नाम से पुकारते हैं। इस प्रकार कभी कमी कजली होली के भँडौए फाग का भी आनन्द देने लगती है।

अस्तु, यह कजली गीत कहाँ से (१) कब से (२) किस कारण (३), और किस प्रकार से (४) उत्पन्न हुई तथा (५) वास्तव में इसका रूप और लक्षण क्या है? आदि जटिल प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर यद्यपि कठिन है, तो भी इस विषय में हम कुछ अपने विचार लिखते हैं,—

(१) जानना चाहिये कि इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं है कि उत्पत्ति स्थान इसका यहीं है। क्योंकि प्रथम तो जिस धूम-धाम से कजली यहाँ मनाई जाती है, किसी दूसरे स्थान पर ऐसी नहीं। दूसरे आज तक जितनी कजलियाँ सुनी गई हैं, सब यहीं की ग्राम्य भाषा वा बनारसी मिश्रित भाषा में कि जो इस नगर के केवल पाँच ही कोस पूर्वीय प्रान्त से प्रारम्भ होती है, अतः उसे भी हम यहीं अर्थात् कन्तित, मिरजापुर अथवा चुनार की भाषा मानते हैं। जो कदाचित् कोई कोई कजली सामान्य गीतों की भाषा में सुनी भी जाती सो प्रथम तो वे अति विरल, और प्रायः नवीन रचित हैं; तो मी उनमें किसी दूसरी ग्राम्य भाषा का मेल न होने से उस पूर्वोक्त अनुमान में कोई बाधा नहीं पड़ती।

(२) 'कब से' के उत्तर में—हम यहां केवल यही कह सकते हैं कि कजली त्योहार के प्रचार के कुछ पीछे और कजली खेलके प्रारम्भ के संग इसको भी सृष्टि हुई। कजली त्योहार सम्बन्धी कृत्य दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, अर्थात् एक तो उसका धार्मिक अंश जो पूजनादि कृत्यों में स्त्रियों के द्वारा अनुष्ठित होता है। दूसरा उसके सम्बन्ध में क्रीड़ा कौतूहल और आमोद प्रमोदादि कार्य कि जो उसी धर्म वा सदाचार सम्बन्धी कृत्य वा उत्सव की सोभा बढ़ाने एवम् उस समय के अनुसार मन बहलाने के अर्थ आवश्यक माना जाकर स्वभावतः प्रचलित हुआ। पिछले दिनों वर्षा ऋतु में