पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३७९

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पृथक् विधान भविष्योत्तर पुराण में देखा जाता है। यद्यपि जो पुस्तक हमने देखी उसमें न जाने क्यों दोनों का शुक्ल ही तृतीया में विधान पाया, परन्तु इसमें अवश्य ही कुछ भूल की आशंका होती है और जो शुक्ल और कृष्ण केवल एक ही शब्द के फेरफार से सहज सुलभ है। हरितालिका में दो भ्रम का स्थान नहीं है, क्योंकि उसका प्रचार विधान के अनुसार ही है। कजली त्योहार में कृत्यादि के विरुद्ध शुक्ला तृतीया का उल्लेख निःसन्देह इत दोष वा भ्रम का होना प्रमाणित करता है। क्योंकि प्रथम तो एक ही दिन दोनों बतों का होना असम्भव है, दूसरे उनका प्रचार कृष्णा तृतीया में पाया जाता और वही कजलो वा काली नाम के कारण स्वाभाविक है।

भविष्य पुराण के उत्तर पर्व के २० वी अध्याय में इस उत्सव और हरिकाली नामक व्रत का विस्तार से—जिसके अनुसार यह उत्सव प्रायः इस देश में मनाया भी जाता यो वर्णन मिलता हैः—

"महाराज युधिष्टिर के इस प्रश्न के उत्तर में कि आर्द्ध धान्य में स्थित जो हरिकाली नामा देवी स्त्रियों से पूजी जाती है, वह कौन हैं और उनके पूजा का क्या फल है। भगवान श्री कृष्ण ने कहा, एक समय देवताओं के सहित विष्णु भगवान् के समक्ष, नील कमल के तुल्य प्रभा वाली काली नामक देवी निज पत्नी को हास्य पूर्वक महादेव जी ने काजल सी काली कह पुकारा, जिससे अत्यन्त अपमानित और कुपित होकर उन्होंने अपनी श्याम श्रुति को हरित शद्वल में छोड़ उस शरीर को आग में जला, पर्वतराज हिमालय के घर गौरी रूप से जन्म ले, शित्र की अर्धाङ्गिनी होकर देवताओं से पूजित हुई। इस प्रकार शस्य में स्थित उस हरिकाली देवी को पूजना चाहिये। अतः भाद्र तृतीया को धान्य से उगे हरितशस्य में गंध, पुष्प, फल और मिष्ठान्न आदि से गाते बजाते उनकी पूजा कर, रात को जागरण कर प्रातः काल रम्य जलाशय में उसे विसर्जन[१]


  1. एवं. सा हरि कालीति गौरी शस्थे व्यवस्थिता।
    पूजनीया महादेवी मन्त्रेणानेन पाण्डव॥
    हरकर्म समुत्पन्ने हरिकाली हरिप्रिये।
    मां त्राहि शस्य मूर्तिस्थे प्रणतास्तुनमोनमः॥